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अध्यात्मवाद : एक अध्ययन
है, वैसे ही विविध योनियों में भ्रमण करते हुए जीव के पर्याय बदलते हैं-रूप और नाम बदलते हैं-मगर जीव द्रव्य वही रहता है।
जीवन में सुख और दुःख किस कारण से पैदा होते हैं ? इस प्रश्न का समाधान करते हुए भगवान् महावीर ने कहा-आत्मा ही अपने सुख और दुःख का कर्ता है, और भोक्ता है । २२ अात्मा ही अपने कृत कर्मों के अनुसार विविध गतियों में परिभ्रमण करता है२3 और अपने ही पुरुषार्थ से कर्मपरम्परा का उच्छेद कर सिद्ध, बुद्ध और मुक्त बनता है।२४
जैसा कि पहले कहा जा चुका है, आत्मा का कोई प्राकार नही है, किन्तु सकर्मक आत्मा किसी न किसी शरीर के साथ ही रहती है, अतएव प्राप्त शरीर का आकार ही उसका आकार हो जाता है । इस कारण जैन दर्शन में प्रात्मा को कायपरिमित माना गया है । प्रात्मा स्वभावतः असंख्यात प्रदेशी है, और उसके प्रदेश संकोच-विकासशील होते हैं । अतएव वह कर्मोदय के अनुसार जो शरीर उसे प्राप्त होता है, उसी में उसके समस्त प्रदेशों का समावेश हो जाता है। इस प्रकार न पात्मा शरीर के एक भाग में रहती है, न शरीर के बाहर होती है और न सर्वव्यापी है। अलबत्ता केवलीसमुद्घात के समय उसके प्रदेश समस्त लोक में व्याप्त हो जाते हैं, इस अपेक्षा से उसे लोकव्यापक कहा जा सकता है ।२५ मगर एकसमयभावी उस अवस्था की विवक्षा नहीं करके प्रात्मा शरीरप्रमाण ही मानी जाती है।
२२. उत्तरा० २०।३७ २३. जमिणं जगई पुढो जगा, कम्मेहिं लुप्पन्ति पाणिणो । सयमेव कडेहि गाहइ, नो तस्स मुच्चेज्जऽपुट्ठयं ।।
-सूत्रकृताङ्ग १२।१।४ २४. जह य परिहीण-कम्मा सिद्धा सिद्धालयमुवेति ।
-प्रोपपातिक २५. द्रव्यसंग्रह, ब्रह्मदेवकृत टीका १०
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