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धर्म और दर्शन
ज्ञान मय असंख्य प्रदेशों का पिण्ड है । वह अरूप है, एतदर्थ नेत्रों से देखा नहीं जाता, किन्तु चेतना गुणों से उसका अस्तित्व जाना जा सकता है। वह वाणी द्वारा प्रतिपाद्य और तर्क द्वारा गम्य नहीं है ।२०
गणधर गौतम के प्रश्न के उत्तर में भगवान् महावीर ने अनेकान्त की भाषा में प्रात्मा को जहाँ नित्य बलाया है, वहाँ अनित्य भी बताया है।
एक समय की बात है। भगवान् महावीर के चरणारविन्दों में गौतम स्वामी आए। वन्दना करके विनम्र भाव से बोले-भगवन् ! जीव नित्य है या अनित्य है ?
भगवान् बोले-गौतम ! जीव नित्य भी है और अनित्य भी।
गौतम-भगवन् ! यह किस हेतु से कहा गया कि जीक नित्य भी है और अनित्य भी !
भगवान् गौतम ! द्रव्य की अपेक्षा से नित्य है और पर्याय की अपेक्षा से अनित्य है ।२१
अभिप्राय यह है कि जीवत्व की दृष्टि से जीव शाश्वत है। अपने मूल द्रव्य के रूप में उसकी सत्ता कालिक है। अतीतकाल में जीव था, वर्तमान में है और भविष्य में भी रहेगा, क्योंकि सत् पदार्थ कभी असत् नहीं होता । इस प्रकार द्रव्यतः नित्य होने पर भी जीव पर्यायतः अनित्य है, क्योंकि पर्याय की दृष्टि से वह सदा परिवर्तनशील है। जीव विविध गतियों में, विभिन्न अवस्थाओं में परिणत होता रहता है।
जैसे सोने के कुण्डल, मुकुट, हार आदि अनेक आभूषण बनने पर भी, नाम और रूप में अन्तर पड़ जाने पर भी सोना-सोना ही रहता
१६. अपयस्स पयं णत्थि ।
-प्राचारांग ६३१३३२ २०. सव्वे सरा णियट्टन्ति, तक्का जत्थ ण विज्जइ । मई तत्थ ण गाहिता".. ।
-पाचारांग ६।१।३३० २१. भगवती, शतक ७, उद्द० २
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