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कर्मवाद-पर्यवेक्षण
दार्शनिक वादों की दुनिया में कर्मवाद का अपना एक विशिष्ट स्थान है। कर्मवाद के मर्म को समझे विना भारतीय दर्शन विशेषतः आत्मवाद का यथार्थ परिज्ञान नहीं हो सकता।
डाक्टर हजारीप्रसाद द्विवेदी के मन्तव्यानुसार “कर्मफल का सिद्धान्त भारतवर्ष की अपनी विशेषता है । पुनर्जन्म का सिद्धान्त खोजने का प्रयत्न अन्यान्य देशों के मनीषियों में भी पाया जा सकता है, परन्तु इस कर्मफल का सिद्धान्त और कहीं भी नहीं मिलता।"१ ___ सुप्रसिद्ध प्राच्य-विद्याविशारद कीथ ने सन् १६०६ की रायल एशियाटिक सोसायटी की पत्रिका में एक बहुत ही विचार पूर्ण लेख लिखा था । उसमें वे लिखते हैं--"भारतीयों के कर्म बन्ध का सिद्धान्त निश्चय ही अद्वितीय है। संसार की समस्त जातियों से उन्हें यह सिद्धान्त अलग कर देता है । जो कोई भी भारतीय धर्म और साहित्य को जानना चाहता है, वह यह उक्त सिद्धान्त को जाने बिना अग्रसर नहीं हो सकता।" कर्म शब्द के पर्यायवाची :
आत्मतत्त्व के सम्बन्ध में विभिन्न दार्शनिकों की विभिन्न धारणाएं होने से कर्म के स्वरूप-विवेचन में भी विभिन्नता होना स्वाभाविक है। तथापि यह स्पष्ट है कि सभी आस्तिक दर्शनों ने पुनर्जन्म की संसिद्धि के लिए किसी न किसी रूप में कर्म-सिद्धान्त को स्वीकार किया है । सभी दर्शनों के शब्दों में अन्तर होने पर भी उसके आधार भूत भाव में प्रायः समानता है।
जैन दार्शनिकों ने जिसे कर्म कहा है, उसे वेदान्त दर्शन ने अविद्या,
१. अशोक के फूल-भारतवर्ष की सांस्कृतिक समस्या : पृ० ६७, २. अशोक के फूल, पृ० ६७
उत्तराध्ययन अ० ३३३१ (ख) सूत्रकृताङ्ग १।२।१।४ (ग) आचारांग १२।२।५
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