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________________ कर्मवाद-पर्यवेक्षण न्याय दर्शन अदृष्ट (कर्म) को प्रात्मा का गुण मानता है और उसका फल ईश्वर के माध्यम से आत्मा को प्राप्त होता है। सांख्य दर्शन कर्म को प्रकृति का विकार मानता है।" अच्छी-बुरी प्रवृत्तियों का प्रकृति पर संस्कार पड़ता है, उस प्रकृतिगत संस्कार से ही कर्मों के फल प्राप्त होते हैं। बौद्ध दर्शन चिलगत वासना को ही कर्म मानता है ।२ वासना ही कार्य कारण भाव के रूप में सुख-दुःख का हेतु बनती है । मीमांसक यज्ञ आदि क्रियाओं को ही कर्म कहता है । 3 पौराणिक मान्यतानुसार व्रत नियमादि धार्मिक अनुष्ठान कर्म हैं। वैयाकरणों की दृष्टि से कर्ता जिसे अपनी क्रिया के द्वारा प्राप्त करना चाहता है वह कर्म है । गीता४ उपनिषद् आदि ने अच्छे-बुरे कार्यों को कर्म कहा है। जैनदर्शन के अनुसार कर्म केवल संस्कार मात्र नहीं है, किन्तु एक स्वतंत्र तत्त्व है । मिथ्यात्व, अवत, प्रमाद, कषाय और योग से जीव के द्वारा जो किया जाता है वह कर्म है ।५ अर्थात् प्रात्मा की राग द्वषात्मक क्रिया से आकाश प्रदेशों में स्थित अनन्तानन्त कर्म योग्य सूक्ष्म पुद्गल चुम्बक की तरह आकृष्ट होकर आत्म प्रदेशों के साथ बद्ध हो जाते हैं, वे कर्म हैं। जैसे गर्म लोहपिण्ड पानी में रखने १०. ईश्वरः कारणं पुरुषकर्म फलस्य दर्शनात् । -न्यायसूत्र ४१ ११. अन्तःकरणधर्मत्वं धर्मादीनाम् । -~सांख्यसूत्र ५।२५ १२. अभिधर्म कोष, चतुर्थ परिच्छेद १३. तन्त्रवार्तिक पृ० ३६५-६ १४. कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन । -भगवद्गीता प्र० ४ श्लो० २७ १५. कीरइ जीएण हेउहि, जेण तो भण्णए कम्मं । -कर्मग्रन्थ, प्रथम, गा० १ प्राचार्य देवचन्द्र, (ख) विसय कसायहिं रंगियहँ, जे अणुया लग्गति । जीव-पएसह मोहियहँ, ते जिण काम भणंति ॥ -परमात्मप्रकाश श६२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003191
Book TitleDharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1967
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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