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धर्म और दर्शन
पर चारों ओर के पानी को खींचता है, वैसे ही आत्मा भी राग द्व ेष के वशीभूत होकर कार्मणजातीय पुद्गलों को आकर्षित करता है
कर्म के भेद :
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कर्म के मुख्यतः दो भेद हैं, द्रव्य कर्म और भाव कर्म । सांसारिक जीव का "रागद्वेषादिमय वैभाविक परिणाम भाव कर्म हैं, और उन वैभाविक परिणामों से आत्मा में जो 'कार्मण वर्गरणा' के पुद्गल सर्वात्मना चिपकते हैं, वे द्रव्य कर्म हैं ।" द्रव्य कर्म और भाव कर्म में निमित्त-नैमित्तिक रूप द्विमुख कार्यकारण भाव सम्बन्ध है । द्रव्य कर्म कार्य है और भाव कर्म कारण है । प्रस्तुत कार्य कारण भाव मुर्गी और अण्डे के कार्य कारण भाव सदृश है । मुर्गी से अण्डा उत्पन्न होता है, अतः मुर्गी कारण है और अण्डा कार्य है । मगर अण्डे से मुर्गी उत्पन्न होती है, अतएव अण्डा कारण और मुर्गी कार्य है । इस प्रकार दोनों कार्य और दोनों कारण हैं । यदि यह जिज्ञासा व्यक्त की जाय कि पहले मुर्गी थी या अण्डा ? तो इसका समाधान नहीं दिया जा सकता, क्योंकि अण्डा मुर्गी से होता है और मुर्गी भी ग्रण्डे से समुत्पन्न होती है । ग्रतः दोनों में कार्य कारण भाव स्पष्ट है । उनमें पौर्वापर्य भाव नहीं बतलाया जा सकता। संतति की दृष्टि से उनका पारस्परिक कार्य कारण भाव अनादि है । वैसे ही द्रव्य और भाव कर्म का कार्य-कारण भाव सम्बन्ध संतति की अपेक्षा से अनादि है । दोनों एक दूसरे के उत्पन्न होने में निमित्त हैं ।
जैसे मिट्टी का एक पिण्ड घड़े आदि के रूप में परिरगत होने का उपादान कारण है, किन्तु कुम्भकाररूपी निमित्त के प्रभाव में वह घट नहीं बनता, वैसे ही कार्मरण वर्गरणा के पुद्गलों में कर्म रूप में परिणत होने की शक्ति है, एतदर्थ पुद्गल द्रव्य कर्म का उपादान कारण है, पर जीव में भाव कर्म की सत्ता का प्रभाव हो तो पुद्गल द्रव्य कर्म में परिणत नहीं हो सकता । अतः भावकर्म द्रव्य कर्म का
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पोग्गल - पिडो दव्वं तस्सन्ति भावकम्मं तु I
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- गोम्मटसार, कर्मकाण्ड, प्रा० नेमिचन्द्र
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