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कर्मवाद-पर्यवेक्षण
निमित्त कारण है और द्रव्य कर्म भी भाव कर्म का निमित्त है । अतः द्रव्य और भाव कम का कार्य कारण भाव उपादानोपादेय रूप न होकर निमित्त नैमित्तिक रूप है। अन्य दर्शनकारों ने भी द्रव्य और भाव कर्म को विविध नामों से स्वीकार किया है । कर्म का अस्तित्व :
इस विराट् विश्व में यत्र-तत्र-सर्वत्र विषमता, विचित्रता और विविधता दृष्टिगोचर होती है । सब जीव स्वभावतः समान होने पर भी उनमें मनुष्य, पशु, पक्षी, कीट, पतंग आदि के रूप में जो महान् अन्तर दिखाई पड़ता है, इसका क्या कारण है ? केवल मानव जगत् को ही लें, तो भी कोई निर्धन है, कोई धनी है। कोई स्वस्थ है, कोई रुग्ण है । कोई अज्ञ है, कोई विज्ञ है। कोई निर्बल है, कोई सबल है । कोई सुन्दर है कोई कुरूप है। कोई सुखी है, कोई दुःखी है । कोई गगनचुम्बी अट्टालिकानों में रहता है तो कोई टूटी-फूटी झोंपड़ियों में । कोई गुलाबजामुन और रसगुल्ले उड़ा रहा है तो कोई भूख से छटपटा रहा है । कोई बहुमूल्य और चमकदार वस्त्रों से अलंकृत है तो कोई फटे-पुराने चीथड़ों से वेष्टित है। यहाँ तक कि एक माता की कौंख से उत्पन्न हुए पुत्रों में भी दिन-रात का अन्तर देखा जाता है, एक राजा है, दूसरा रंक है। इस भेद और विषमता का मूल कारण क्या है ? यह एक ज्वलंत प्रश्न है ।
भारत के मननशील मेधावी मनीषियों ने इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा --विषमता और विविधता का मूल कर्म है। कर्म से ही विविधता और विषमता उत्पन्न होती है। जैन दर्शन की तरह बौद्ध
१७. देखिए-आत्ममीमांसा, पं० दलसुख मालवणिया । १८. कम्मओणं भंते, जीवे, नो अकम्मओ विभत्तिभावं परिणमई । कम्मओणं जने ? णो अकम्मओ विभत्तिभावं परिणमई ॥
-भगवती १२१५ १६. कम्मुणा उवाही जायइ ।
-प्राचारांग ३१
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