________________
धर्म और दर्शन
से भ्रष्ट व्यक्ति का निर्वाण सम्भव है, पर सम्यग्दर्शन से चलित श्रात्मा का निर्वाण असम्भव है । ३
१३८
आध्यात्मिक क्षेत्र में सम्यग्दर्शन की अपार महिमा गाई गई है । ज्ञातृ धर्मकथा में इसे रत्न की उपाधि प्रदान को गई है । १४ जिस साधक को इस 'चिन्तामणि' दिव्यरत्न की समुपलब्धि हो जाती है वह चाण्डाल भी देव है । तीर्थङ्करों ने उसे देव माना है । राख से प्राच्छादित प्राग की तरह उसके अन्तरतर में ज्योतिपुञ्ज जाज्ज्वल्यमान रहता है । "
सम्यग्दर्शी साधक आत्म-अभ्युदय के पथ पर निरन्तर अग्रसर होता रहता है । वह कभी परिश्रान्ति का अनुभव नहीं करता । वह यथार्थ द्रष्टा होता है । उसके अन्तर्मानस में सत्य की जगमगाती ज्योति निरन्तर जलती रहती है । सत्य ही लोक में सारभूत है ", सत्य ही भगवान् है ।" सत्य भगवान् की आराधना साधना ही उसके जीवन का ध्येय होता है । सत्य की पर्युपासना करने वाले सम्यग्दृष्टि के लिए मिथ्या त भी सम्यक् श्रत बन जाते हैं । "
सत्य
१३. दंसणभट्ठा भट्ठा, दंसणभट्ठस्स णत्थि णिव्वाणं । सिज्यंति चरियभट्ठा, दंसणभट्ठा ण सिज्भंति ॥
१४. अपडिलद्धसम्मत्तरयणपडिलंभेणं.....
१५. सम्यग्दर्शनसम्पन्नमपि
देवा देवं विदुर्भस्मगूढांगारान्तरौजसम् ॥
सच्चं लोगम्मि सारभूयं ।
१७,
सच्चं खु भगवं ।
१८. सम्मदिट्ठिस्स सुअं सुयनाणं, मिच्छादिट्ठिस्स सु सुअ- अन्नाणं,
१६.
Jain Education International
-ज्ञातृ धर्मकथा, श्र० १ सू० ४५ मातंगदेहजम् ।
- षट्प्राभृत
-रत्नकरण्ड श्रावकाचार २८
- प्रश्नव्याकरण सूत्र
-- प्रश्नव्याकरण सूत्र
For Private & Personal Use Only
- नन्दीसुतं
www.jainelibrary.org