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________________ साधना का मूलाधार १३६ साधक राग-द्वेषात्मक संसार से पार हो जाता है । वह देवगति के सिवाय अन्य किसी भी गति का आयु बन्ध नहीं करता ।२° वह अवर्णनीय और अचिन्त्य आध्यात्मिक आनन्द का अनुभव करता है। एक प्राचार्य के शब्दों में सम्यग्दर्शन यथार्थ में बहुत सूक्ष्म है और वह वाणी से परे है ।२१ सम्यग्दर्शन शब्द में विराट् अर्थ सन्निहित है । सम्यक्त्व, सच्चाई, हक़ीकत, रास्ती, ट्रथ, ऋत, समत्व, योग, श्रद्धा आदि शब्दों से जो प्राशय निकलता है, उस सबका समावेश इसमें हो जाता है। प्रायः सभी दर्शनों और विचारकों ने सम्यग्दर्शन को अपनी-अपनी परम्परा के अनुसार महत्त्व प्रदान किया है और उसे मुक्ति का मुख्य कारण माना है। समन्वयदृष्टि से चिन्तन करने पर सूर्य के उजाले की भाँति स्पष्ट परिज्ञान होता है कि भाषा में अन्तर होने पर भी उनका भाव समान ही है। गीता ने योग२२ को सम्यग्दर्शन कहा है तो न्यायदर्शन२3 ने . तत्त्वज्ञान को। सांख्यदर्शन२४ ने भेदज्ञान को सम्यग्दर्शन माना है तो योगदर्शन२५ ने विवेकख्याति को। बौद्धदर्शन ने क्षणभंगुरता और चार आर्य सत्यों का ज्ञान सम्यग्दर्शन स्वीकार किया है२६ तो वेदों ने ऋत को। १६. सच्चस्स प्राणाए उवट्ठिओ मेहावी मारं तरइ । --प्राचारांग २०. भगवती ३०१ २१. सम्यक्त्वं वस्तुतः सूक्ष्ममस्ति वाचामगोचरम् । २२. समत्त्वं योग उच्यते । -गीता २१४८ २३. न्यायसूत्र ४।१।३०६ २४. सांख्य कारिका ६४ २५. योग दर्शन १११३ २६. बौद्ध दर्शन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003191
Book TitleDharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1967
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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