________________
१४०
धर्म और दर्शन
सम्यग्दर्शन जीवन की श्रेष्ठ कला है । प्रात्मा को सहज अभिव्यक्ति है। एतदर्थ ही जैन संस्कृति के इस मौलिक तत्त्व को सभी विचारकों ने अपने यहाँ स्थान दिया है। सम्यग्ज्ञान :
ज्ञान आत्मा का निज गुण है। ज्ञान के अभाव में आत्मा की कल्पना करना संभव नहीं। न्याय वैशेषिक दर्शन की तरह जैन दर्शन ने ज्ञान को औपाधिक या आगन्तुक नहीं माना, किन्तु प्रात्मा का मौलिक गुण माना है । ज्ञान प्रात्मा ही है, अात्मा से अभिन्न है ।२७ जो आत्मा है वह विज्ञाता है और जो विज्ञाता है वह आत्मा है ।२८ व्यवहार नय से ज्ञान और आत्मा में भेद है, किन्तु निश्चयनय से प्रात्मा और ज्ञान में कोई भेद नहीं है ।२९ अनन्त ज्ञानशक्ति आत्मा में स्वभाव से ही विद्यमान है किन्तु ज्ञानावरण कर्म से आच्छादित होने के कारण उसका पूर्ण प्रकाश प्रकट नहीं होने पारहा है। ज्यों ज्यों आवरण हटता जाता है त्यों-त्यों ज्ञानप्रकाश भी बढ़ता जाता है, पर प्रात्मा की ऐसी अवस्था कभी नहीं होती कि उसमें किंचित् भी ज्ञान का आलोक न हो। किन्तु सम्यग्दर्शन-सहचरित न होने से वह ज्ञान अज्ञान अर्थात् मिथ्याज्ञान कहलाता है ।
आत्मा क्या है ? कर्म क्या है ? बंधन क्या है ? कर्म प्रात्मा के साथ क्यों बद्ध होते है ? आदि विषयों का यथार्थ रूप से परिज्ञान ही True knowledge सम्यग्ज्ञान है। अयथार्थ बोध मिथ्याज्ञान है।३१
२७.. गाणे पुण णियमं आया ।
-~भगवती १२।१० २८. जे आया से विणाया, जे विण्णाया से आया।
__ -आचारांग, ५२५२१६६ २६. समयसार-६।७ ३०. सव्वजीवाणंपि य णं अक्खरस्स अणंतभागो निच्चुग्घाडियो ।
-नन्दी सूत्र ४३ ३१. द्रव्य संग्रह
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org