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सेवा : एक विश्लेषण
नमस्कार करना किया है। जो सेवा ही है। प्राचार्य कौटिल्य ने वैयावृत्य का अर्थ परिचर्या किया है ।५९...
सेवा प्रात्म-साधना का अपूर्व उपाय है, नर से नारायण बनने की श्रेष्ठ कला है। सेवा करने वाला, सेवा करानेवा ले से महान् होता है । शिर सेव्य हैं और पैर सेवक है। सेव्य ही सेवक के चरणों में झुकता है। राम सेव्य थे, और हनुमान सेवक थे। हनुमान के उपासना गृह (मन्दिर) प्रायः प्रत्येक गांव में मिलते हैं, किन्तु राम के क्वचित् ही। हनुमान की यह लोक-प्रियता सिद्ध करती है कि सेव्य से भो सेवक अधिक जन-मन प्रिय होता है। गांधी जी के शब्दों में "सेवा से बढ़कर व्यक्ति को द्रवित करने वाली और कोई चीज संसार में नहीं है।६० ___ज्ञातृधर्म कथा का एक मधुर प्रसंग है। सेवामूर्ति पंथक मुनि की सेवानिष्ठा ने शैलकराजर्षि के जीवन को आमूलचूल परिवर्तित कर दिया। उन्हें न केवल द्रव्यनिद्रा से बल्कि भावनिद्रा से भी जागृतकर दिया था। ___ आज सेवा का नारा एक किनारे से दूसरे किनारे तक गज रहा है । सेवकों की भरमार है; पर सेवा में जैसी चाहिए वैसी चमक पैदा नहीं हो रही है। इसका कारण है प्रेम और तन्मयता का अभाव । कर्तव्य की दृष्टि से जो सेवा की जाती है, उसमें समर्पण एवं
आत्मोत्सर्ग ही प्रमुख होता है। उसमें बदले की चाह नहीं होती । वह षड़ी के कांटे की तरह निरन्तर चलती रहती है।
५६. तह यावृत्यकाराणामधंदण्डः । व्याख्या-तद्व यावृत्त्यकाराणां तस्य
वैयावृत्यकाराः विशेषेण आसमन्तावर्तन्त इति । व्यावृत्तः परिचारकः तस्य कर्म वैयावृत्यं परिचर्या तत् कुर्वन्तः परिचारकाः तेषां अर्धदण्ड ।
कौटिलीय अर्थशास्त्र, अधिकरण २ प्रकरण २३।२० ६०. गाँधी जी को सूक्तियाँ पृ० १११ ६१. णायाधम्मकहाओ श्रुत० १ अ० ५
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