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धर्म और दर्शन
___जो शक्ति होने पर भी दूसरों की सेवा नहीं करता है और कहता है--'जब मैं रुग्ण हुआ था, तब इसने भी मेरी सेवा नहीं की थी। मैं क्यों करू? यदि वह व्यथा से व्यथित है तो भले ही हो, मुझे क्या गर्ज है ?' ऐसा विचार करने वाला भी महामोहनीय कर्म का बंधन करता है ।५५
प्राचार्य जिनदास गणी महत्तर ने सेवा को ही भक्ति माना है । आचार्य के सम्मान में खड़ा होना, दण्ड ग्रहण करना, पाँव पोंछना, आसन देना आदि जो सेवा है, वही भक्ति है ।१६
राजेन्द्र कोषकार ने सेवा का अर्थ भक्ति और विनय किया है।५७ उमास्वाति ने विनय के ज्ञान दर्शन, चारित्र और उपचार ये चार भेद किये हैं। इनमें उपचार का अर्थ प्राचार्य पूज्यपाद ने सर्वार्थ सिद्धि में प्राचार्य के पीछे चलना, सामने आने पर खड़ा होना, पंजलिबद्ध होकर
(ख) समवायांग स.म० ३० (ग) आवश्यक अ०४ साहारणट्ठा जे :केइ, गिलाणम्मि उवट्ठिए । पभू न कुणइ किच्च, मझ पि से न कुम्वइ । सढे नियडी-पण्णाणे, कलुसाउल-चेयसे । अप्पणो य अबोहीए, महामोहं पकुव्वइ ।।
-दशाभुत स्कन्ध, ६ दशा, गा० २५।२६ (ख) समवायांग सम० ३० ।
(ग) आवश्यक अ० ४ ५६. अन्भुट्ठाणदंडग्गहण-पायपुच्छणासणप्पदाणगहणादीहिं सेवा जा सा भक्ति ।
-निशीथ चूणि ५७. सेवायां भक्तिविनयः ।
-राजेन्द्र कोष ५८. ज्ञान दर्शन चारित्रोपचाराः ।
-तत्त्वार्थसूत्र, प्र० ६, सू० २३
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