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________________ सेवा : एक विश्लेषण १६३ पर मुझे उनकी शुश्र षा करनी पड़ेगी, इस भावना से यदि वह श्रमण उस स्थान को छोड़कर अरण्य में होकर जाने का मार्ग ग्रहण करता है, अथवा जिस मार्ग से आया उसी मार्ग से पूनः लौटने का प्रयत्न करता है तो उसे आज्ञा, अनवस्था, मिथ्यात्व और विराधना अादि दोष लगते हैं। यदि कोई श्रमण अपने साथी मुनि की अस्वस्थता की उपेक्षा कर तपश्चरण करता है, शास्त्र स्वाध्याय करता है तो वह भी प्रायश्चित्त का अधिकारी है। वह संघ में रहने के अयोग्य है । सेवा से जी चुराना अपने प्रात्म-गुणों का हनन करना है। और साथ ही संघीय मर्यादा की उपेक्षा करना है, जो सबसे बड़ा पाप है। दशाश्र तस्कन्ध, समवायांग और आवश्यक सूत्र में महामोहनीय कर्म बन्धन के तीस प्रकार बताये हैं। अष्ट कम प्रकृतियों में मोहनीय कर्म सबसे अधिक पतन का कारण है । जब दुरध्यवसाय की तीव्रता एवं क रता अधिक मात्रा में बढ़ जाती है तब महामोहनीय कर्म का बंध होता है, अर्थात् उत्कृष्ट सत्तर कोडाकोडी सागर तक की स्थिति वाले मोहनीय कर्म का बंध करता है। प्रस्तुत तीस भेदों में बाईसवां और पच्चीसवां भेद सेवा न करने के सम्बन्ध में है। सेवा न करने से, और सेवा के प्रति उपेक्षा रखने से प्रात्मा का कितना भयंकर पतन होता है, वह इस से स्पष्ट है। प्राचार्य और उपाध्याय की जो सम्यक प्रकार से सेवा नहीं करता वह अप्रतिपूजक और अहंकारी होने से महामोहनीय कर्म की उपार्जना करता है ।५४ ५३. सोऊण उ गिलाणं. उम्मग्गं गच्छ पडिवहं वावि । मग्गाओ वा मग्गं, संकमई आणमाईणि ॥ -वृहत्कल्प नियुक्ति भाष्य १८७१ ५४. आयरिय-उवज्झायारणं, सम्मं नो पडितप्पइ । अप्पडिपूयए थद्ध, महामोहं पकुव्वइ ॥ -दशाभुत स्कन्ध, ६ दशा, गा० २२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003191
Book TitleDharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1967
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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