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धर्म और दर्शन
की तरह संघ के प्रत्येक सदस्य के जीवन के कण-कण में सेवा की विराट भावना अठखेलियाँ करती रहे। सेवा का प्रसंग उपस्थित होने पर सच्चे सेनानी की तरह सदा तत्पर रहे, बगलें न झाँके । यदि वह झाँकता है तो प्रायश्चित्त का अधिकारी है।
जो श्रमण श्रमण की ग्लानता सुनकर भी उसकी उपेक्षा करता है तो उसे [सविस्तार] गुरुचातुर्मासिक प्रायश्चित्त का भागी होना पड़ता है।५० ___यदि कोई समर्थ साधु बीमार साधु को छोड़कर अन्य किसी कार्य में लग जाय, बीमार की सार-संभाल न करे, तो उसे गुरु चौमासी प्रायश्त्ति पाता है।५१
रास्ते में जाते हुए, गाँव में प्रवेश करते हुए अथवा भिक्षा के लिए परिभ्रमण करते हुए श्रमण को यदि किसी मुनि की ग्लानावस्था की सूचना प्राप्त हो तो वह आवश्यक कार्य को छोड़कर उसके पास सेवा के लिए पहुँचे । यदि वह नहीं पहुँचता है तो उसे गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है ।५२
एक श्रमण विहार कर जा रहा है। उसे जिस स्थान पर पहुँचना है, वहाँ स्वगच्छ का अथवा परगच्छ का श्रमरण ग्लान है, वहाँ पहुँचने
(घ) देखिए लेखक का 'ऋषभदेव : एक परिशीलन' ग्रन्थ । ४६. आवश्यक चूणि, पृ० १३३
(ख) आवश्यक नियुक्ति मलयगिरि वृत्ति । (ग) आवश्यक हारिभद्रीयावृत्ति पृ० २१९
(घ) त्रिषष्ठि० ११११९०६ ५०. जो उ उवेहं कुज्जा लग्गइ गुरुए सवित्थारे ।
-वृहत्कल्प सूत्र भाष्य १८७५ ५१. जे भिक्खू गिलाणं सोचा णच्चा न गवेसइ, न गवसंतं वा साइज्जइ........आवज्जइ चउम्मासियं परिहार ठाण अणुग्धाइयं ।
-निशीथ १३७ ५२. सोऊण उ गिलाणं, पंथे गामे य भिक्खवेलाए । जइ तुरियं नागच्छइ, लग्गइ गरुय स चउमासे ॥
-वहत्कल्पसूत्र भाष्य १८७२
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