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सेवा : एक विश्लेषण
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श्रमण का कर्तव्य है कि संयमशील श्रमण की सेवा करे । ग्लान साध की सेवा करने से तीर्थ की अनुवर्तना होती है और तीर्थकर देव की भक्ति होती।४३ प्राचार्य का भी कर्तव्य है कि सहधर्मी के रोगी होने पर उसकी यथा शक्ति सेवा करे ।४४ जो संघ सेवा-शुश्र षा की भावना को नहीं जानता है, उसे प्रश्रय नहीं देता है, जिस संघ के प्राचार्य अपने संघ के सदस्यों की सुख दुःख निवारण की विधि नहीं जानते, रोगी की चिकित्सा से अनभिज्ञ हैं वह संघ छिन्न-भिन्न होकर नष्ट हो जाता है।४५
संघसमुत्कर्ष के लिए अपेक्षित है कि संघ का प्रत्येक सदस्य सेवानिष्ठ हो । नन्दिषेण ६ मेघकुमार बाहु,४८ और सुबाहु मुनि
(ख) गिहिणो वेयावडियं न कुज्जा ।
-दशवकालिक दूसरी चूलिका गा० । (ग) 'गृहिणो' गृहस्थस्य वैयावृत्त्यं गृहिभावोपकाराय तत्कर्मस्वात्मनो व्यावृत्तभावं न कुर्यात्, स्वपरोभयाश्रेयः समायोजन दोषात् ।
-दशवकालिक-हारिभद्रीया वृत्ति प० २८१ ४३. तित्थाणुसज्जणा खलु भत्ती य कया हवइ एवं ।
-बृहत्कल्पसूत्र, लघुभाष्य गा० १८७८ ४४. साहम्मियस्स गिलायमाणस्स अहाथामं बेयावच्चे अन्भुद्वित्ता भवई ।।
-दशाशु तस्कंध, चतुर्थदशा ४५. उप्पण्रोण गेलाणे जो गणधारी न जाणई तेगिच्छं । दीसं ततो विणासो सुह दुक्खा तेण उच्चता ।।
- व्यवहार भाष्य ५५१२८ ४६. उत्तराध्ययन टीका-कथा। ४७. अज्जप्पभिईणं भंते ! मम दो अच्छीगि मोत्तुरणं । अवसेसे काए समणाणं निग्गंथालं निसटु ।
- ज्ञातृधर्म कथा प्र० १ आवश्यक चूणि पृ० १३३ (ख) आवश्यक हारिभद्रीयावृत्ति प० २१६ (ग) त्रिषष्ठिशलाका पुरुषचरित्र. १३१६६०६, आचार्य हेमचन्द्र कृत
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