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धर्म और दर्शन
प्रथम रुग्ण भिक्षुत्रों की सेवा करो। जिनको मेरी सेवा करनी हो वे पीड़ितों की सेवा करें 38
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एक पाश्चात्य विचारक ने भी कहा है- गरीबों की सेवा ईश्वर की सेवा है ।"
मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम की जिज्ञासा का समाधान करते हुए वशिष्ठ ने कहा- जिस किसी भी तरह मन, वचन और काय से किसी की सेवा करना ईश्वरपूजा है ।४१
भगवान् का एक नाम दीनबन्धु है । उन्हें 'दीनानाथ " भी कहते हैं। दीन और रुग्ण की सेवा करना साक्षात् जीवित भगवान् की सेवा करना है । नरसेवा ही नारायणसेवा है ।
प्रश्न है कि जब सेवा का इतना गहरा महत्त्व है और जैन साहित्य में भी सेवा का इतना उल्लेख है तो जैन संस्कृति के श्रमरण को तो निःसंकोच भाव से सभी की सेवा करनी चाहिए, चाहे वह गृहस्थ हो या श्रमण हो ।
उत्तर है कि जैन संस्कृति के श्रमण की अपनी मर्यादा है। उसका अपना कर्मक्षेत्र है । मर्यादा में रहकर वह गृहस्थ की द्रव्य सेवा नहीं किन्तु भाव सेवा कर सकता है। भाव सेवा का महत्त्व भी कम नहीं है | यदि श्रमण अपने श्रमरण-धर्म की मर्यादा को भूलकर गृहस्थ की द्रव्य सेवा करता है तो वह श्रमण के लिए अनाचार है । ४२
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(ख) जो गिलाणं पडियरइ से मज्भं जाणेणं दंसणेणं चरितेां पडिवज्जह -- वृहत्कल्प सूत्र, लघुभाष्य
(ग) उत्तराध्ययन सर्वार्थ सिद्धि, परोषह अध्ययन (ब) आणाराइणं दंसरणं खु जिणारणं, विनय पिटक ८|७|| का सारांश,
Service of poor is the service of GOD येन केन प्रकारेण, यस्य कस्यापि देहिनः । संतोषं जनयेद् राम !, तदेवेश्वरपूजनम् ॥ गिहिणो वेयावडियं,
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- दशबैकालिक श्र० ३ गा० ६
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