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धर्म और दर्शन
... प्रेम की जिस उर्वर भूमि से कत्तव्य का जन्म होता है वह कर्तव्य सेवा है। मां पुत्र की सेवा करती है। अपने आपको पुत्र की सेवा में विस्मृत कर देती है। भूख प्यास भूल जाती है । एतदर्थ ही उसकी सेवा उच्च कोटि की गिनी गई है। जिस सेवा में आत्म-भाव का अभाव होता है उसमें तोलने की बुद्धि रहती है, और जहाँ पर तोल है, वहाँ हृदय के माधुर्य का मोल कम हो जाता है। अतः भारतीय संस्कृति साधक के अन्तर्हृदय में सेवा की सही ज्योति जगाती है और सेवक के हृदय में प्रात्मार्पण की भव्य भावना पैदा करती है। अग्लान भाव से सेवा करने को उत्प्रेरित करती है।६२
६२. गिलाणस्स अगिलाए वेयावच्च करणयाए अब्भु? यव्वं भवइ ।
-स्थानाङ्ग, स्थान ८, सूत्र ६२
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