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धर्म और दर्शन
शोभा दान देने से है, न कि रत्नजटित कंगन पहनने से।३२ भारतीय साहित्य में हाथ को कमल की उपमा दी है ।3 उसे 'कर-कमल' कहते हैं। हाथ तभी कमल बनता है जब उसमें से दान की मनमोहक सुगन्ध निकलती है। देना एहसान नहीं है, यह जीवन का ताना-बाना है। ताना बाने से स्थित है और बाना ताने से। यदि दोनों का सहयोग नष्ट हो जायेगा तो दोनों केवल सूत रह जायेंगे।
भारतवर्ष के ऋषियों का चिन्तन कहता है कि दान दो, पर देने वाले को दीन-हीन और दरिद्र समझकर मत दो। यदि दीन-हीन और दरिद्र समझ कर दोगे तो उसमें अहंकार का विष मिल जायेगा, जो दान के प्रोज को नष्ट कर देगा । अतः लेने वाले को भगवान् समझकर दो । भक्त मन्दिर में पहुँचता है, मूर्ति के सामने मोहनभोग, और नैवेद्य चढ़ाता है । वह भगवान् को भूखा और दीन-हीन समझकर अर्पण नहीं करता, किन्तु विश्वम्भर समझकर देता है । "हे प्रभो ! यह सभी तुम्हारा है और तुम्हें ही समर्पण कर रहा हूँ"४ यह कितनी गहरी और ऊंची भावना है। अर्पण में कितना आनन्द और उल्लास है।
पुत्र पिता को भोजन अर्पण करता है तो उसमें भी यही भावना है.। भूखे हैं, दो-ऐसा सोचकर नहीं देता, किन्तु 'पितृदेवो भव' समझकर देता है। वैसे ही प्रत्येक आत्मा को परमात्मा समझकर दो, बादलों की तरह अर्पण कर दो। बादल आकाश से पानी नहीं लाते किन्तु भूमण्डल से ही ग्रहण करते हैं। बादलों के पास जो एक-एक बद का अस्तित्व है वह इसी भू-मण्डल का है, इसी से लिया और इसी को अर्पण कर दिया । तुम्हारी चीज तुम्हें ही सर्पित है । इस अर्पण में एहसान नहीं, किन्तु प्रेम है । अहंकार नहीं, विनय है ।
यदि आप भाग्यवान हैं तो अपने भाग में से भाग देना सीखिए । आपकी सम्पत्ति में समाज का भी भाग है । यदि भाइयों के हिस्से हो
३२. दानेन पाणिर्न तु कङ्कणेन । ३३. दानामृतं यस्य करारविन्दे । ३४. त्वदीयं वस्तु गोविन्द, तुभ्यमेव समप्यते ।
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