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धर्म और दर्शन
दर्शन २, योग दर्शन33, न्याय दर्शन, वैशेषिक दर्शन और उपनिषद्
आदि में हुआ है। जिस कर्म के फल को प्राणी अनुकूल अनुभव करता है वह पुण्य है और प्रतिकूल अनुभव करता है वह पाप है । पुण्य के फल की सभी इच्छा करते हैं । किन्तु पाप के फल की कोई इच्छा नहीं करता । इच्छा न करने पर भी उसके विपाक से बचा नहीं जा सकता। ___ जीव ने जो कर्म बांधा है उसे इस जन्म में या आगामी जन्मों में भोगना ही पड़ता है ।३६ कृत-कर्मों का फल भोगे बिना प्रात्मा का छुटकारा नहीं हो सकता।
महात्मा बुद्ध कहते हैं "चाहे अन्तरिक्ष में चले जानो, समुद्र में घुस जामो, गिरि कंदराओं में छिप जाओ। किन्तु ऐसा कोई प्रदेश नहीं, जहाँ तुम्हें पाप कर्मों का फल भोगना न पड़े।८
वेदपंथी कवि सिहलन मिश्र भी यही कहते हैं कि कहीं भी चले जाओ, परन्तु जन्मान्तर में जो शुभाशुभ कर्म किये हैं, उनके
३२. सांख्यकारिका ४४ ३३. योगसूत्र २।१४
. (ख) योगभाष्य २०१२ ३४. न्याय मंजरी पृ० ४७२ ।
(ख) प्रशस्तपाद पृ० ६३७।६४३ ३५. बहदारण्यक ३।२।१३ ३६. परलोककडा कम्मा इहलोए वेइज्जंति, इहलोककडा कम्मा इहलोए वेइज्जति ।
-भगवती सूत्र (ख) स्थानान सूत्र ७७ ३७. कडाण कम्माण न मोक्ख अत्थि ।।
-उत्तराध्ययन ४॥३ ३८. न अन्तलिक्खे न समुद्दमझे,
न पव्वतानं विवरं पविस्स । न विज्जती सो जगतिप्पदेशो, यत्थट्टितो मुञ्चेऽय्य पावकम्मा ।
-धम्मपद १२
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