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________________ कर्मवाद : पर्यवेक्षण ४६ फल तो छाया के समान साथ ही साथ रहेंगे । वे तुम्हें कदापि नहीं छोड़ेगे 13 आचार्य अमितगति का कथन है- " अपने पूर्वकृत कर्मों का ही शुभाशुभ फल हम भोगते हैं, यदि अन्य द्वारा दिया फल भोगें तो हमारे स्वकृत कर्म निरर्थक हो जायेंगे । ४० अध्यात्मशास्त्र के प्रकाण्ड पण्डित प्राचार्य कुन्दकुन्द का भी यही स्वर है - " जीव और कर्मपुद्गल परस्पर गाढ़ रूप में मिल जाते हैं, समय पर वे पृथक्-पृथक् भी हो जाते हैं । जब तक जीव और कर्म पुद्गल परस्पर मिले रहते हैं तब तक कर्म सुख-दुःख देता है और जीव को वह भोगना पड़ता है । ४१ महात्मा बुद्ध ने एक बार पैर में काँटा विंध जाने पर अपने शिष्यों से कहा - "भिक्षु ! इस जन्म से एकानवे जन्म पूर्व मेरी शक्ति (शस्त्र ३६. ४०. ४१. आकाशमुत्पततु गच्छतु वा दिगन्त - मम्भोनिधिं विशतु तिष्ठतु वा यथेष्टम् । जन्मान्तराजितशुभाशुभकृन्नराणां, छायेव न त्यजति कर्म फलानुबन्धि || स्वयं कृतं कर्म्म यदात्मना पुरा, परेण T फलं तदीयं लभते शुभाशुभम् दत्तं यदि लभ्यते स्फुटं, स्वयं कृतं कर्म निरर्थकं तदा ॥ जीवा पुग्गलकाया Jain Education International अण्णा गाढगणपडिबद्धा | काले विजुज्जमाणा, सुहदुक्खं दिति भुंजन्ति ॥ 1 - शान्तिशतकम् ८२ For Private & Personal Use Only - द्वात्रिंशिका, ३० - पञ्चास्तिकाय ६७ www.jainelibrary.org
SR No.003191
Book TitleDharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1967
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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