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कर्मवाद-पर्यवेक्षण
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देता है, और कभी कर्मों की बहुलता होने पर जीव उनसे दब जाता है ।२९ ___ बहि ष्टि से कर्म बलवान् प्रतीत होते हैं, पर अन्तर्दृष्टि से आत्मा ही बलवान् है, क्योंकि कर्म का कर्ता आत्मा है, वह मकड़ी की तरह कर्मों का जाल बिछाकर उसमें उलझता है। यदि वह चाहे तो कर्मों को काट भी सकता है । कर्म चाहे कितने भी अधिक शक्ति शाली हों, पर आत्मा उससे भी अधिक शक्तिसम्पन्न है। ___ लौकिक दृष्टि से पत्थर कठोर है और पानी मुलायम है, किन्तु मुलायम पानी पत्थर के भी टुकड़े-टुकड़े कर देता है । कठोर चट्टानों में भी छेद कर देता है। वैसे ही आत्मा की शक्ति कर्म से अधिक है। वीर हनुमान को जब तक स्व स्वरूप का परिज्ञान नहीं हुआ तब तक वह नाग-पाश में बँधा रहा, रावण की ठोकरें खाता रहा, अपमान के जहरीले पूंट पीता रहा, किन्तु ज्यों ही उसे स्वरूप का ज्ञान हुआ, त्यों ही नाग-पाश को तोड़कर मुक्त हो गया। प्रात्मा को भी जब तक अपनी विराट् चेतनाशक्ति का ज्ञान नहीं होता तब तक वह भी कर्मों को अपने से अधिक शक्तिमान् समझकर उनसे दबा रहता है, ज्ञान होने पर उनसे मुक्त हो जाता है । कर्म और उसका फल : ___ सांसारिक जीव जो विविध प्रकार के कर्मों का बन्धन करते हैं, उन्हें विपाक की दृष्टि से भारतीय चिन्तकों ने दो भागों में विभक्त किया है, शुभ और अशुभ, पुण्य और पाप अथवा कुशल, और अकुशल । इन दो भेदों का उल्लेख, जैन दर्शन,° बौद्ध दर्शन, सांख्य
२६. कत्थवि बलिओ जीवो, कत्थवि कम्माइ हुन्ति बलियाई। जीवस्स य कम्मस्स य, पुब्बविरुद्धाइ वैराइ ।
-गणधरवाद २-२५ शुभः पुण्यस्य, अशुभ : पापस्य
---तत्त्वार्थ सूत्र ६।३-४ ३१. विशुद्धिमग्ग १७४८८
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