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सेवा : एक विश्लेषण
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गुरुस्थानीय होता है, कल्पस्थित कहलाता है । प्रस्तुत क्रम छह माह तक चलता है। उसके पश्चात् चारों तप करने वाले श्रमण वैयावृत्य करते हैं, वैयावृत्य करनेवाले तप तपते हैं । प्रवचन करने वाला श्रमण पूर्ववत् ही प्रवचन करता है। छह माह पूर्ण होने पर प्रवचन करने वाला तप करता है और आठ श्रमणों में से एक प्रवचन करता है, शेष सातों श्रमण सेवा करते हैं ।२५ छह मास तक तप कर चुकने वाले निविष्ट कायिक कहलाते हैं और जो तप कर रहे हों वे निविश्यमानक कहे जाते हैं।
पागम साहित्य में. अनेक स्थलों पर कड़ाई स्थविर का वर्णन है। कडाइ स्थविर सेवा के जीते जगाते सजग प्रहरी होते थे । सेवा करना उनके जीवन का प्रमुख ध्येय होता था। वे सेवा की प्रशस्त भावना से प्रेरित होकर सथारा और संलेखना करने वाले के साथ पर्वतादि पर जाते थे। कहा जाता है कि जब तक संथारा करने वाले का संथारा पर्ण नहीं होता था तब तक वे स्वयं भी आहारादि ग्रहण नहीं करते थे और अग्लान भाव से उसकी सेवा करते थे ।२६ ।।
परिहारो पुण परिहारियाण सो गिम्ह-सिसिर-वासासु । पत्त यतिविगप्पो चउत्थयाई तवो नेओ ।। गिम्ह-सिसिर-वासासु चउत्थयाईणि बारसताई। अड्ढोपक्कतिए जहण्ण मज्झिमुक्कोसयतवारणं ।। सेसा उ नियमभत्ता पायं भत्तं च ताणमायाम । होइ नवण्हवि नियमा न कप्पए सेसयं सव्वं ॥ परिहारिया-ऽगुपरिहारियाण कप्पट्ठियस्स वि य भत्त। छ छम्मासा उ तवो अट्ठारसमासिओ कप्पो । -विशेषावश्यक भाष्य, प्रथम भाग गा० १२७१ से १२७५ १० ४५८-४६०
प्रकाशक-श्रागमोदयसमिति २५. पन्नवणा सूत्र, पृ० १०२-१०३ अमोलक ऋषि जी।। २६. ......"तहारुवेहि कडाइहिं थेरेहि सद्धि विउलं पव्वयं सणियं सणियं
दूरुहइ दूरुहित्ता....."तएणं ते थेरा भगवंतो मेहस्स अणगारस्स अगिलाए वेयाविडयं करेंति ।
- ज्ञातासूत्र, अ० १ सू० ४६
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