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धर्म और दर्शन
नियुक्तिकार ने श्रमणों के लिए विधान किया है कि जब श्रमण शारीरिक दृष्टि से सक्षम हो जाय, भिक्षा लेने के लिए जाने में समर्थ हो जाय तो सर्वप्रथम उस साधक का कर्त्तव्य है कि ग्लान श्रमण की मन लगाकर सेवा करे | २७
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नियुक्तिकार ने स्पष्ट कहा है कि 'चररण कररण में प्रमाद का ग्राचररण करने वाले, संयमीय सद्भाव से विमुख, पार्श्वस्य, अवसन्न, कुशील, निर्ग्रन्थों की भी कारण वशात् सेवा की जा सकती है, तो फिर विवेकी जितेन्द्रिय मन, वचन और काया को गोवन करने वाले उद्यतविहारी मोक्षाभिलाषी की तो हर प्रयत्न से सेवा करनी ही चाहिए । २८
वृद्धों की सेवा करने वाले पुरुषों को ही चारित्र आदि सम्पदा प्राप्त होती है और क्रोधादि कषायों से कलुषित बना मन भी निर्मल हो जाता है।
गणधर गौतम के प्रश्न के उत्तर में भगवान श्री महावीर ने कहा - वैयावृत्य से जीव तीर्थङ्कर नाम गोत्र का बंध करता है | 30 केवल ज्ञान तो कोई भी विशिष्ट साधक प्राप्त कर सकता है, पर तीर्थङ्कर बनने के लिए लम्बी साधना करनी पड़ती है । साधना के जितने भी पथ हैं उन सभी में सेवा का पथ सर्वश्रेष्ठ है । यद्यपि सेवा
२७.
२८.
कुज्जा गिलाणगस्स उ पढमालिअ जाव बहिगमणं ।
३०.
२६. वृद्धानुजीविनामेव,
जता पासत्थोसण्ण कुसीलनिण्हवगाणंपि देसि चरणकरणालसारणं सम्भावपरं मुहा
- श्रोघनियुक्ति, ग्लान द्वार
करणं ।
च ॥
- प्रोघनियुक्ति ४८
स्युश्चारित्रादिसम्पदः ।
भवत्यपि च निर्लेप, मनः क्रोधादिकश्मलम् ॥
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- ज्ञानार्णव प्र० १५ श्लोक १६
वेयावच्चेणं भंते ! जीवे किं जणयई ! arraच्चे जीवे तित्थयरनामगोत्तं कम्मं निबंधइ |
- उत्तराध्ययन श्र० २६ प्रश्न० ४३
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