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________________ सेवा : एक विश्लेषण १८७ धर्म परम गहन माना गया है, उस पर चलते समय योगियों के कदम भी लड़खड़ा जाते हैं" किन्तु यह विस्मरण नहीं होना चाहिए कि सुमनों की सुमधुर सौरभ वहीं प्राप्त होती है । कहावत भी है " करे सेवा, पावे मेवा ।" अन्य सभी गुरण प्रतिपाती हैं, वे मानवजीवन के प्रान्त तक ही साथ रहते हैं, पर वैयावृत्य प्रतिपाती है । वह दूसरे जन्म में भी साथ रहता है । संयम साधना से भ्रष्ट होने पर प्रथवा मृत्यु प्राप्त होने पर चारित्र की चारु चन्द्रिका नष्ट हो जाती है । स्वाध्याय के अभाव में पठित शास्त्र भी विस्मृति के अंचल में छिप जाते हैं किन्तु वैयावृत्य से प्राप्त शुभ फल कभी भी नष्ट नहीं होता । वह अवश्य ही प्राप्त होता है महात्मा बुद्ध ने भी कहा है " एक तरफ मानव सौ वर्षों तक जंगल में अग्नि की परिचर्या करे और दूसरी तरफ पुण्यात्मा की क्षणभर भी सेवा करे वह सेवा सौ वर्ष तक किये गये यज्ञ से कहीं उत्तम है | 33 सदा वृद्ध महानुभावों की सेवा करने वाले और अभिवादनशील पुरुष की प्रायु, सौन्दर्य, सुख और बल ये चार वस्तुएँ वृद्धि को प्राप्त सेवाधर्मः परमगहनो योगिनामप्यगम्यः । उत्तरगुणे सव्वं किल पडिवाई, वेयावच्चं परिभग्गस्स मयस्स वा, नासइ चरणं सुयं अगुणगाए । न हु वेयावच्च चिय, सुहोदयं नासए कम्मं ॥ ३१. ३२ वेयावच्चं निययं करेह, ३३. Jain Education International धरिताणं । अपडिवाई | यश्च वर्षशतं जन्तुरग्निं परिचरेद् वने । एकं च भावितात्मानं, मुहूर्तमपि पूजयेत् ॥ तदिदं पूजनं श्रेयो, न तु वर्षशतं हुतम् ॥ पंचतंत्र - विष्णुशर्मा - श्रोघनियुक्ति ५३२०५३३ - धम्मपद ( संस्कृत छाया ) १०७ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003191
Book TitleDharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1967
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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