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________________ १८४ धर्म और दर्शन यदि श्रमण वर्षावास में विहार करता है तो उसे प्रायश्चित्त नहीं आता । हाँ, सेवा का प्रसंग समुपस्थित होने पर भी यदि वह विहार नहीं करता है तो प्रायश्चित्त का भागी है। कितना गहरा है सेवा का महत्त्व । श्राचार्य जिनसेन ने तो सेवा को तप का हृदय माना है परिहार विशुद्ध चारित्र को आराधना और साधना भी बिना वैयावृत्य के संभव नहीं है । आगम साहित्य में परिहार विशुद्ध चारित्र की विधि इस प्रकार है- " नौ पूर्वी तक या दशवें पूर्व की तृतीय आचार वस्तु तक अध्ययन करने वाले नौ साधु, ग्रध्ययन के पश्चात् तीर्थङ्कर या जिन्होंने तीर्थङ्कर के सान्निध्य में परिहारविशुद्ध चारित्र की साधना की है उन विशिष्ट साधकों के सान्निध्य में परिहार विशुद्ध चारित्र को स्वीकार करते हैं। उन नौ श्रमणों में से प्रथम चार श्रमण यदि उष्ण काल हुआ, तो उत्कृष्ट अष्टम भक्त की आराधना करते हैं । यदि शीत काल हुआ तो जघन्य षष्ट भक्त, मध्यम अष्टम भक्त और उत्कृष्ट दशम भक्त की प्राराधना करते हैं । यदि वर्षा काल हुआ तो जघन्य अष्टम भक्त, मध्यम दशम भक्त, और उत्कृष्ट द्वादश भक्त की तपश्चर्या करते हैं । अवशेष पांच श्रमणों में से एक श्रमण प्रवचन करता है और चार श्रमण पाँचों की सेवा करते हैं । तप करने वाले श्रमरण पारिहारिक कहलाते हैं और वैयावृत्य करने वाले अनुपारिहारिक कहलाते हैं । २४ प्रवचन करने वाला साधु, जो २३. स वैयावृत्यमातेने व्रतस्थेष्वा मयादिषु । अनात्मतरको भूत्वा तपसो हृदयं हि तत् ॥ २४. सेकितं परिहारविशुद्धिय चरितारिया ? परिहार विशुद्धि चरितारिया दुविहा पण्णत्ता तं जहा - निव्विस्समाग परिहार विसुद्धिय चरितारिया । निम्बिकाइयपरिहारविसुद्धियचरितारिया य । सेत्तं परिहार विसुद्धिय चरितारिया । तं दुविगप्पं निव्विस्समाणपरिहारियाऽणुपरिहारियाण --- - महापुराण ७२।११।२३३ Jain Education International पनवणा पद १ ० १०५ निव्विटुकाइयवसेण । कपट्टियस्सविय ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003191
Book TitleDharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1967
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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