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सेवा : एक विश्लेषण
निशीथ आदि आगम साहित्य में यह स्पष्ट विधान है कि वह वर्षावास में जीवों की दया के लिए, रक्षा के लिए, एक स्थान पर स्थिर होकर संयम साधना करे । वर्षाऋतु में ग्रामानुग्राम विहार न करके पवन रहित स्थान में रहे। आगमिक भाषा में उसे प्रतिसंलीनता तप कहा है- 'वासास पडिसलीणा ।"२० श्रमण प्रस्तुत विधान का उल्लंघन कर यदि ग्रामानुग्राम विहार करता है तो उसे चातुर्मासिक प्रायश्चित्त पाता है।२१ __ स्थानाङ्ग सूत्र में उपयुक्त विधान से भिन्न द्वितीय विधान यह है कि श्रमण वर्षावास में भी पाँच कारणों से विहार कर सकता है। उसमें एक कारण आचार्य उपाध्याय प्रभृति की सेवा है। प्राचार्य उपाध्यायादि का अन्यत्र वर्षावास है। उन्हें सेवा के लिए आवश्यकता है तो श्रमण विहार कर उनका सेवा के लिए जा सकता है, या वे जहाँ आदेश दें, सेवा के लिए, वहाँ जा सकता है ।२२ सेवा के लिए
१६. निशीथ सूत्र, उद्देशा २, सू० ४१ । २०. (क) सदा इंदियनोइदियपरिसमल्लीणा विसेसेण सिणेहसंघट्ट
परिहरणत्थं णिवातलतणगता वासासु पडिसंलोणा नो गामारणुगामं दूतिज्जति ।
-- दशवकालिक अगस्यसिंह चूणि (ख) वासासु पडिसंलीणा नाम आश्रयस्थिता इत्यर्थः, तवविसेसेसु उज्जमंति नो गामनगराइसु विहरंति ।
-दशवकालिक जिनदास चूणि पृ० ११६ (ग) वर्षाकालेषु संलोना, संलीना इत्येकाश्रमस्था भवन्ति ।
- दशवैवालिक हारिभद्रीया वृत्ति १० ११६ २१. जे भिक्खु पढमपाउसंसि गामारणुगामं दूइज्जइ दूइज्जतं वा साइज्जइ ।
-निशीय उद्धे २, सू० ४१ २२. कप्पइ पंचहि ठाणेहिं णिग्गंथाणं णिग्गंथीणं वा पढमपाउसंसि
गामाणुगामं दूइज्जत्तए तंजहा णाणट्ठयाए, दंसणट्ठयाए, चरित्तद्वयाए, आयरिय उवज्झायारणं वा से वीसुभेज्जा, आयरिय उवज्झायारणं वा बहिया वेयावच्च करणयाए ।
-स्थानाङ्ग ५, स्थान
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