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कर्मवाद : पर्यवेक्षण
___ चक्षुर्दर्शनावरण कर्म नेत्रों द्वारा होने वाले सामान्य बोध को आवृत करता है। अचक्षुदर्शनावरण कर्म-चक्षु के अतिरिक्त अन्य इन्द्रियों और मन के द्वारा होने वाले सामान्य बोध को प्रावृत करता है। अवधि दर्शनावरण कर्म-इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना आत्मा को रूपी द्रव्यों का जो सामान्य ब्रोध होता है उसे आच्छादित करता है। केवलदर्शनावरण कर्म सर्व द्रव्य और पर्यायों के युगपत् होने वाले सामान्य अवबोध को प्रावृत करता है। निद्रा कर्म वह है, जिससे सुप्त प्राणी सुख से जाग सके, ऐसी हल्की निद्रा उत्पन्न हो । निद्रानिद्रा कर्म से ऐसी नींद उत्पन्न होती है जिससे सुप्त प्रारणी कठिनाई से जाग सके। प्रचला-जिस कर्म से ऐसी नींद उत्पन्न हो कि खड़े-खड़े और बैठे-बैठे भी नींद आये । प्रचला-प्रचला कर्म-जिससे चलते-फिरते भी नींद आये । स्त्यानधिजिस कर्म से दिन में अथवा रात में सोचे हुए कार्यविशेष को निद्रावस्था में सम्पन्न करे, वैसी प्रगाढ़तम नींद ।
दर्शनावरण कर्म भी देशघाती और सर्वघाती रूप में दो प्रकार का है। चक्षु, अचक्षु, अवधिदर्शनावरण देशघाती हैं और शेष छह प्रकृतियाँ सर्वघाती हैं ।" सर्वघाती प्रकृतियों में केवल
चक्खुमचक्खूओहिस्स, दंसणे केवले य आवरणे। एवं तु नवविगप्पं, नायव्वं दंसणावरणं ।।
--उत्तरा० ३३१५-६ (ख) समवायाङ्ग सू०६ (ग) स्थानाङ्ग ८।३।६६८ (घ) चारचक्षुरवधिकेवलानां निद्रा-निद्रानिद्रा-प्रचला-प्रचलाप्रचला स्त्यानगृद्धिवेदनीयानि च ।
-तत्त्वार्थ सूत्र ८८ (ङ) प्रज्ञापना २३।१
(च) कर्मग्रन्थ १११. दरिसणावरणिज्जे कम्मे एवं चेव ।
टीका-देशदर्शनावरणीयं चक्षुरचक्षुरवधिदर्शनावरणीयं; सर्वदर्शनावरणीयं तु निद्रापञ्चकं केवलदर्शनावरणीयं चेत्यर्थः, भावना तु पूर्ववदिति ।
-ठाणाङ्ग २।४।१०५
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