SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 83
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धर्म और दर्शन दर्शनावरण कर्म पदार्थों की विशेषता को ग्रहण किये बिना केवल उनके सामान्य धर्म का बोध करना दर्शनोपयोग है।१०८ जिस कर्म के प्रभाव से दर्शनोपयोग आच्छादित रहता है वह दर्शनावरणीय कर्म है । दर्शन गुरण के सीमित होने पर ज्ञानोपलब्धि का द्वार बन्द हो जाता है। इस कर्म की तुलना शासक के उस द्वारपाल से की गई है जो शासक से किसी व्यक्ति को मिलने में बाधा उपस्थित करता है। द्वारपाल की बिना आज्ञा के व्यक्ति शासक से नहीं मिल सकता, वैसे ही दर्शनावरण कर्म वस्तुप्रों के सामान्य बोध को रोकता है ।१०९ पदार्थों के देखने में अड़चन डालता है। ___दर्शनावरण कर्म की नौ उत्तर प्रकृतियाँ हैं-(१) चक्षुर्दर्शनावरण, (२) अचक्षुर्दर्शनावरण, (३) अवधिदर्शनावरण, (४) केवल दर्शनावरण, (५) निद्रा, (६) निद्रानिद्रा, (७) प्रचला, (८) प्रचलाप्रचला, (६) स्त्याद्धि । ११० आवरणिज्जाण दुण्हं पि वेयणिज्जे तहेव य । अन्तराए य कम्मम्मि, ठिई एसा वियाहिया ।। -उत्तराध्ययन ३३।१६-२० (ख) आदितस्तिसृणामन्तरायस्य च त्रिंशत्सागरोपमकोटीकोट्यः परा स्थितिः । तत्त्वार्थ सूत्र ८।१५ (ग) पञ्चम कर्मग्रन्थ गा० २६ । १०८. जं सामन्नग्गहरणं, भावाणं नेव कटु आगारं । अविसेसिऊण अत्थे, दंसणमिह वुच्चए समये ।। १०६. सणसीले जीवे, दंसणघायं करेइ जं कम्मं । तं पडिहारसमारणं, दंसणंवरणं भवे जीवे ॥ -स्थानाङ्ग २।४।१०५ टीका दसणचउ पणनिद्दा, वित्तिसमं दंसणावरणं । -प्रथम कर्मग्रन्थ है (ग) गोम्मटसार कर्मकाण्ड २१, नेमिचन्द्र ११०. निद्दा तहेव पयला, निद्दानिद्दा य पयलपयला य । तत्तो य थाणगिद्धी उ, पंचमा होइ नायव्वा ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003191
Book TitleDharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1967
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy