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________________ ७० धर्म और दर्शन दर्शनावरण प्रमुख है। ज्ञानावरण की तरह इसे भी समझ लेना चाहिए। दर्शनावरण कर्म का पूर्ण क्षय होने पर जीव की अनन्त दर्शन शक्ति प्रकट होती है, वह केवल दर्शन का धारक बनता है। जब उसका क्षयोपशम होता है तब चक्षु दर्शन, अचक्षु दर्शन और अवधि दर्शन प्रकट होता है। प्रस्तुत कर्म की न्यूनतम स्थिति अन्तमुहूर्त की और उत्कृष्ट स्थिति तीस कोटाकोटि सागरोपम की है । ११२ वेदनीय कर्म : __आत्मा के अव्याबाध गुण को प्रावृत करने वाला कर्म वेदनीय है। वेदनीय कर्म से आत्मा को सुख दुःख का अनुभव होता है। उसके दो भेद हैं-(१) साता वेदनीय, (२) असाता वेदनीय । १3 साता वेदनीय कर्म से जीव को भौतिक सुखों की उपलब्धि होती है। और असाता वेदनीय कर्म से मानसिक और शारीरिक दुःख प्राप्त होता है ।११४ वेदनीय कर्म की तुलना मधु से लिप्त तलवार की धार से की गई है । तलवार की धार पर लिप्त मधु को चाटने के ११२. उत्तराध्ययन ३३१६-२० (ख) तत्त्वार्थ सूत्र ८।१५ (ग) पंचम कर्मग्रन्थ गा० २६ (घ) प्रज्ञापना, पद २६ उ० २, सू० २६३ ११३. वेयणीयं पि दुविहं सायमसायं च आहियं । -उत्तराध्ययन ३३१७ (ख) स्थानाङ्ग २।१०५ ११४. यदुदयाद्देवादिगतिषु शरीरमानससुखप्राप्तिस्तत्सद् वेद्यम् । प्रशस्तं वेद्य सवेद्यमिति । यत्फलं दुःखमनेकविधं तदसवेद्यम् । अप्रशस्तं वेद्यमसद्वेद्यमिति । -तत्त्वार्थ ८।८, सर्वार्थसिद्धि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003191
Book TitleDharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1967
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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