________________
धर्म और दर्शन
साधन है । आत्मोत्कर्ष के लिए व्यर्थ के काल्पनिक प्रादर्शो के गगन में उड़ान भरने की अपेक्षा उन आदर्शो को जीवन में उतारना अधिक उत्तम है ।
१६
आत्मोत्थान में धर्म प्रचार के रूप में साधन है तो दर्शन विचार के रूप में । प्राचार और विचार के समन्वय से ही अभीष्ट की सिद्धि होती है । यही कारण है कि वैदिक दर्शन ने ज्ञानयोग और कर्मयोग के रूप में २१, बौद्ध दर्शन ने विद्या और चारित्र के रूप में २२ तथा जैनदर्शन ने सम्यग् दर्शन, सम्यग् ज्ञान और सम्यक् चारित्र के रूप२३ में प्रचार और विचार का समन्वय किया है ।
प्राचारहीन विचार निष्फल है और विचारहीन प्राचार अन्धकार में ठोकरें खाने के समान केवल प्रायासजनक ही होता है । दर्शन जीवन का प्रकाश है तो धर्म गति है । दर्शन जीवन की शक्ति है और धर्म जीवन की अभिव्यक्ति हैं । दर्शन से विचार की शुद्धि होती है और धर्म से प्राचार की विशुद्धि होती है ।
संस्कृत साहित्य में अन्ध-पंगु न्याय प्रसिद्ध है । अन्धा चल सकता है, देख नहीं सकता । उसे उन्मार्ग और सन्मार्ग का विवेक नहीं होता । श्रतएव वह उन्मार्ग या विपरीत मार्ग पर चल कर अपने लक्ष्य से और अधिक दूर हो सकता है। पंगु देख सकता है, पर चल नहीं सकता । उसका देखना किसी काम नहीं श्राता । श्रतएव दोनों में समन्वय आवश्यक है । इसी प्रकार यह अनिवार्य है कि अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए मनुष्य प्रचार और विचार का समन्वय करे और शुद्ध विचार की रोशनी में चले । यही धर्म और दर्शन का
समन्वय है ।
२१. देखिए भगवद्गीता ।
२२.
२३.
अंगुत्तरनिकाय, ११-११
आहंसु विज्जा चरणं पमोक्खं ।
(ख) स्थानांग, २-६३
(ग)
- सूत्रांग, १।१२।११
तत्त्वार्थसूत्र, १ - १ आवश्यक नियुक्ति गा० ६४ और ६६
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org