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धर्म और दर्शन
उद्देश्य एक ही है- अपवर्ग, निःश्रेयस् विदेह दशा, निर्वारण, आत्यन्तिक दुःखनिवृत्ति या ब्रह्म की प्राप्ति ।
मैत्रेयी याज्ञवल्क्य से कहती है- जिससे मैं अमृत नहीं बनती, उसे लेकर क्या करू ँ ? जो अमृतत्त्व का साधन हो, वही मुझे
बताओ । १९
इषुकार नरेश से रानी कमलावती कहती है- राजन् धर्मं के अतिरिक्त कोई भी वस्तु त्रारणप्रदाता नहीं है । २°
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इस प्रकार मैत्रेयी अपने पति से मोक्ष के साधनभूत दर्शन की माँग करती है और महारानी कमलावती अपने पति को मोक्ष के साधनभूत धर्म को ही त्रारणप्रद बतलाती है । इन सम्वादों से स्पष्ट हो जाता है कि धर्म और दर्शन दोनों का स्वर एक है ।
पाश्चात्य विद्वान् धर्म और दर्शन को पृथक्-पृथक् मानते हैं । उन्होंने दर्शन के लिए फिलासफी (Philosophy) शब्द का प्रयोग किया है, जिसका अर्थ है-बुद्धि का प्रेम ( Love of wisdom ) । दर्शन केवल बुद्धि का चमत्कार है । इस प्रकार पाश्चात्य विचार के अनुसार दार्शनिक वह है जो जीव, जगत्, परमात्मा और परलोक का निरपेक्ष विद्यानुरागी हो । वहाँ दर्शन केवल दर्शन के लिए है अर्थात् कोरा बुद्धिविलास है ।
किन्तु भारतीय दर्शन का लक्ष्य बहुत ऊँचा है । उसका केन्द्रबिन्दु आत्मा हैं, अर्थात् अपने आपको सही रूप में पहचानना है। साथ ही वह विश्व के समस्त पदार्थों की वास्तविकता को हमारे समक्ष प्रस्तुत करता है । यहाँ दर्शन केवल कल्पनाकुशल कोविदों के मनोविनोद का साधन नहीं, मगर तत्त्व को जानकर हितप्रवृत्ति का
१६. येनाहं नामृता स्यां किं तेन कुर्याम् ? यदेव भवान् वेद तदेव मे ब्रूहि ।
- बृहदारण्यकोपनिषद्
२०. एगो हु धम्मो नरदेव ! ताणं,
न विज्जए अन्नमिहेह किंचि ।
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- उत्तराध्य० १४, ४०
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