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________________ धर्म और दर्शन सत्य एक है, किन्तु उसका निरूपण करने वाले दर्शन अनेक हैं और उनका निरूपण परस्पर विरोधी है । आत्मभिन्न पदार्थो की बात छोड़िए और आत्मा को ही लीजिए। उसके विषय में जितने मुँह उतनी बातें हैं । एक दर्शन का निरूपण दूसरे दर्शन से मेल नहीं खाता । एक दर्शन आत्मा के अस्तित्व का एकान्त निषेध करता है और दूसरा एकान्त विधान करता है । आत्मासम्बन्धी ये दोनों दृष्टियाँ क्या सत्य हैं ? सत्य कोई बहुरूपिया नहीं है, जो एक को अपना एक रूप और दूसरे को दूसरा रूप प्रदर्शित करे । इसके अतिरिक्त बहुरूपिया का भी असली रूप तो एक ही होता है । उसके अनेक रूप वास्तविक हैं । तात्पर्य यह है कि मानव मस्तिष्क से उपजने वाले दर्शनों में पूर्णता सम्भव नहीं है । १४ पूर्ण सत्य की उपलब्धि करने वाला दर्शन वही हो सकता है, जो दिव्यदृष्टि से उद्भुत होता है । दिव्यदृष्टि का अर्थ हैअतीन्द्रिय ज्ञान । तीव्र तपश्चर्या और गम्भीरतम आत्मानुभूति जब चरम सीमा को प्राप्त होती है, तब साधनानिरत पुरुष की आत्मा समस्त आवरणों को छिन्न-भिन्न करके अनन्त ज्ञान की लोकोत्तर ज्योति से जगमगाने लगती है । वह ज्योति इतनी निर्मल होती है कि उसमें प्रत्येक वस्तु अपने वास्तविक स्वरूप में प्रतिभासित होती है । वह ज्योति इतनी पूर्ण होती है कि जगत् की सूक्ष्म से सूक्ष्म वस्तु भी उनसे प्रकाशित नहीं रहती । वह ज्योति ऐसी अप्रतिहत होती है कि देश और काल की दीवारें उसकी गति को नहीं रोक सकतीं । वह ज्योति इतनी प्रखर होती है कि उसे प्राप्त करने वाला सर्वज्ञ सर्वदर्शी बन जाता है । दिव्यदृष्टि से उद्भुत दर्शन ही वास्तविक दर्शन है । वही वस्तुस्वरूप की यथार्थता का निदर्शक होता है । वह तर्क और युक्ति का संबल लेकर वस्तु के प्रत्येक पहलु पर चिन्तन करता है । उद्देश्य जैसा कि प्रारम्भ में कहा जा चुका है, भारत में धर्म और दर्शन का घनिष्ठ सम्बन्ध है और वे एक दूसरे के पूरक हैं। दोनों का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003191
Book TitleDharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1967
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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