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धर्म और दर्शन
अर्थात् स्वर्ग की और निःश्रेयस् अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति होती है, वह धर्म है। - 'धर्म' शब्द की उल्लिखित व्युत्पत्तियाँ शब्द और अर्थ की दृष्टि से मिलती-जुलती हैं। किन्तु आध्यात्मिक परम्परा के मूर्धन्य सन्त प्राचार्य कुन्दकुन्द ने धर्म की जो परिभाषा की है, उसमें जैन दृष्टि की विशिष्टता स्पष्ट प्रतिभासित होती है। उन्होंने वस्तु के स्वभाव को धर्म कहा है' । वस्तु का स्वभाव धर्म किस प्रकार है, इसका स्पष्टीकरण ध्यानयोगी प्राचार्य रामसेन ने किया है, जो इस प्रकार हैसमस्त विश्व पर्यायों को दृष्टि से क्षण-क्षण में विनष्ट हो रहा है। सचेतन हो या अचेतन, सभी पदार्थ प्रतिक्षण नाश को प्राप्त हो रहे हैं। निरन्तर प्रवर्त्तमान इस विनाशलीला में भी वस्तु का मूल स्वभाव वस्तु को धारण किये रखता है, कायम रखता है। प्रत्येक वस्तु अपने स्वभाव से धृत है, अवस्थित है, अतएव वस्तु का स्वभाव धर्म है । उदाहरणार्थ- जीव पर्याय की दृष्टि से विनाशशोल होने पर भी अपने चैतन्यस्वभाव से सदा धृत अर्थात् ध्र व रहता है, इस कारण चैतन्य जीव का धर्म है। प्रतिक्षण विनष्ट होते हुए पुद्गल को उसका मूर्तिकत्व स्वभाव धारण किए रहता है, अर्थात् अस्तित्व में रखता है, अतएव मूर्तिकता पुद्गल का धर्म है ।।
प्राचार शास्त्र की दृष्टि से अहिंसा, संयम और तप धर्म है । धर्म उत्कृष्ट मंगल है ।
इन सभी व्याख्याओं का समन्वय करते हुए कार्तिकेयानुप्रेक्षा में कहा है-वस्तु का स्वभाव धर्म है, क्षमा आदि दश प्रकार का भाव
१०. यतोऽभ्युदयनिःश्रेयसिद्धिः स धर्मः ।
- - वैशेषिक दर्शन ११. वत्युसहावो धम्मो। १२. शून्यीभवदिदं विश्वं स्वरूपेण धृतं यतः । सस्माद्वस्तुस्वरूपं हि, प्राहुधर्म महर्षयः ।।
-तस्थामुशासन, ५३ १३. धम्मो मंगल मुक्किट्ठ, अहिंसा संजमो तवो ।
-दशव० ० १ गा० १
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