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________________ धर्म और दर्शन धर्म है, सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूप रत्नत्रय धर्म है और जीवों का रक्षण करना धर्म है। प्राचार्य समन्तभद्र के कथनानुसार धर्म वह है, जो प्राणियों को सांसारिक दुःखों से बचाता है और उत्तम सुख में धारण करता है। धर्म की इन अनेक व्याख्याओं के उल्लेख का प्रयोजन यह है कि पाठक धर्म के व्यापक स्वरूप को हृदयङ्गम कर सकें। उल्लिखित व्याख्याएं स्पष्ट प्रकट करती हैं कि जीवन को उच्च, पवित्र और दिव्य बनाने वाले जो भी विधिविधान या क्रियाकलाप हैं, वे सभी धर्म के अन्तर्गत हैं। संक्षेप में, दशवैकालिक सूत्र में प्रदर्शित धर्म के स्वरूप के प्रकाश में कहा जा सकता है कि जो उत्कृष्ट मंगल है वही धर्म है । मंगल शब्द का अर्थ है-पाप या बुराइयों का नाश और सुख या कल्याण की प्राप्ति । तात्पर्य यह हया कि जो प्राचारप्रणालिका हमारे जीवन को पाप की कालिमा से बचाती है, जीवनगत बुराइयों को दूर करती है और जिससे कल्याण का पथ प्रशस्त होता है, वही धर्म है। इस व्यापक परिभाषा से जैनागमप्रतिपादित धर्म सार्वभौम धर्म का दर्जा प्राप्त कर लेता है । जिससे प्रात्मा का मंगल हो वह प्रात्म-धर्म है, जिससे राष्ट्र का मंगल हो वह राष्ट्रधर्म है और जिस आचारप्रणाली से विश्व का मङ्गल हो, वह विश्वधर्म है। इसी प्रकार यह परिभाषा सभी समाजों, वर्गों और वर्णों पर लागू होती है। 'चोदनालक्षणो धर्मः' अर्थात् वेद से मिलने वाली प्रेरणा धर्म है, यह परिभाषा जैसे एक ग्रन्थविशेष पर आधारित होने के कारण संकीर्ण है, उस प्रकार जैनपरिभाषा में लेशमात्र भी संकीर्णता नहीं है। १४. धम्मो वत्थुसहावो, खमादिभावो य वसविहो धम्मो । रयणतयं च धम्मो, जीवाणं रक्खणं धम्मो ॥ -कात्तिकेयानुप्रेक्षा, ४७८ १५. संसारदुःखतः सत्त्वान्, यो धरत्युत्तमे सुखे । -~~-रत्नकरण्डक श्रावकाचार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003191
Book TitleDharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1967
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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