SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 176
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रमणसंस्कृति और तप का उपहास किया है और उसकी निरर्थकता बताई है । पर ज्ञात होता है कि उन्होंने केवल बाह्य तप को ही असली तप समझा, याभ्यन्तर तप की ओर उनका ध्यान ही नहीं गया । यदि गया होता तो भूलकर के भी वे जैन परम्परा के तप का उपहास नहीं कर सकते थे। जैन परम्परा में स्पष्ट कहा गया है-कायक्लेश और देहदमन तभी तक सार्थक हैं जब उनका उपयोग आध्यात्मिक शुद्धि के लिए होता है। जो बाह्य तप आध्यात्मिक कलुषता पैदा करता है, वह तप नहीं, ताप है, उपवास नहीं, लंघन है। उपवास का अर्थ है-पापों से निवृत्त होकर सद्गुणों में रमण करना। ___ महात्मा बुद्ध और भगवान् महावीर की तपः साधना में यही मुख्य अन्तर रहा है। महात्मा बुद्ध ने छह वर्ष तक उग्र तप किया, तप से देह को जर्जरित बनाया, पर प्राभ्यन्तर तप के अभाव में बाह्य तप उन्हें शान्ति प्रदान नहीं कर सका। अन्त में उन्होंने बाह्यतप का त्याग किया। किन्तु भगवान् श्री महावीर बाह्यतप के साथ सदा आभ्यन्तर तप करते रहे। अनशन के साथ आसन और ध्यान की स्पर्धा-सी चलती रही। उन्होंने अपने साधना काल में ऊकडू आसन, निषद्या, कायोत्सर्ग, प्रतिमाए एक बार नहीं, अपितु शताधिक बार ८०. तदेव हि तपः कार्य, दुनिं यत्र नो भवेत् । येन योगा न हीयन्ते, क्षीयन्ते नेन्द्रियाणि च ॥ -ज्ञानसार, तपअष्टक, उपा० यशोविजय ८१. कषायविषयाहारः त्यागो यत्र विधीयते । उपवासः स विज्ञेयः, शेषं लंघनंक विदुः ॥ ८२. उपावृत्तस्य पापेभ्यः सहवासो गुणहि यः । उपवासः स विज्ञेयो न शरीरस्य शोषणम् ॥ ८३. इहासने शुष्यतु मे शरीरं, त्वगस्थिमांसं प्रलयं च यातु । अप्राप्य बोधिं बहुकल्पदुर्लभां नैवासनात् कायमिदं चलिष्यति ॥ -दर्शन और चिन्तन, पं० सुखलाल जी द्वि० खण्ड -पृ० ६३ में उद्धृत ८४. मज्झिम निकाय १२ महासीहनाद सूत्र० दण्डिका २० से २६ तक । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003191
Book TitleDharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1967
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy