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मैं देखता हूँ, कि सुकरात के बाद में, ग्रीक दार्शनिकों में और यूरोपीय दार्शनिकों में, धर्म और दर्शन को लेकर पर्याप्त मत-भेद खड़े हो गए हैं। किन्तु सुकरात ने विचार को ही धर्म एवं आचार कह कर जैनपरम्परा का ही अनुगमन किया था। हमारे यहाँ पाँच आचारों में एक ज्ञानाचार भी है, जिसका अर्थ है-ज्ञान ही स्वयं आचार बनता है । जो कुछ विचार है, वही आचार है, और जो कुछ प्राचार है, वही तो विचार है । श्रमणों की परम्परा में, विचार और आचार-दोनों को सहगामी माना है। इस अर्थ में, विचार ही दर्शन है, और आचार ही धर्म है-दोनों सम्बद्ध एवं पूरक है।
भले ही आज हम पाश्चात्यों का अन्ध अनुकरण करके धर्म के लिए religion और दर्शन के लिए Philosophy शब्द का प्रयोग ओर उपयोग करें, परन्तु जो गम्भीरता और व्यापकता धर्म और दर्शन में है, वह religion और Philosophy में नहीं है । क्योंकि ये दोनों एकांगी हैं, दोनों एक-दूसरे से निरपेक्ष हैं, सापेक्ष नहीं। ___ भारत के दार्शनिकों ने कभी धर्म और दर्शन को अलग स्वीकार ही नहीं किया । यहाँ तो जो धर्म है, वही दर्शन है, और जो कुछ दर्शन है, वही धर्म भी है । इतना अन्तर तो अवश्य है, कि दर्शन में तर्क की प्रधानता है, तो धर्म में श्रद्धा की मुख्यता है । परन्तु तर्क धर्म में बाधक नहीं, तो श्रद्धा भी दर्शन में बाधक नहीं।
मैं देखता हूँ, कि वेदान्त में जो पूर्व मीमांसा है, वही धर्म है। जो उत्तर मीमांसा है, वही दर्शन है। योग आचार है, तो सांख्य विचार है । बौद्ध परम्परा में, दो पक्ष हैं-एक हीनयान और दूसरा महायान । महायान दर्शन बन गया,तो हीनयान धर्म बन गया । जैन परम्परा में भी मुख्यरूप से दो ही तत्त्व हैं-अहिंसा और अनेकान्त, अहिंसा धर्म बन गया और अनेकान्त दर्शन बन गया। भारत में धर्म और दर्शन एक-दूसरे को छोड़कर नहीं रह सकते हैं। मानव जीवन की साधना की धरती पर दर्शन को धर्म होना ही पड़ेगा और धर्म को भी दर्शन बनना ही पड़ेगा । यहाँ विचार को आचार होना होता है, और प्राचार को भी विचार होना होता है।
इसके विपरीत यूरोप और ग्रीस में, धर्म और दर्शन, दोनों एक-दूसरे से अलग होकर जीवित रहने का प्रयत्न करते रहे हैं। और इस प्रयत्न में, वे दोनों एक दूसरे से अलग ही नहीं हुए, बल्कि एक-दूसरे के विरोध में भी खड़े
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