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________________ हो गए । आवश्यकता है, आज फिर इन दोनों के सहयोग और समन्वय की। तभी धर्म और दर्शन मानवी जीवन को सुन्दर बना सकेंगे। भारतीय विचारक दर्शन और धर्म के सम्बन्ध में क्या सोचते रहे हैं ? इस सम्बन्ध में लेखक ने अपनी पुस्तक में बहुत उद्धरण दिए हैं, जिससे विषय स्पष्ट हो जाता है । परन्तु थोड़ा परिश्रम करके पाश्चात्य विचारकों का भी मत यदि दे दिया होता, तो सोने में सुगन्ध हो जाती। शायद इधर लेखक का ध्यान गया ही नहीं। पाश्चात्य लोग धर्म में तीन तत्त्वों को स्वीकार करके चलते हैंKnowing, Feeling and Doing or Willing, बुद्धि, भावना और क्रिया -तीनों के समवेत रूप को ही धर्म कहा गया है। बुद्धि का अर्थ है-ज्ञान. भावना का अर्थ है-श्रद्धा और क्रिया का अर्थ है-आचार । जैन परम्परा के अनुसार भी श्रद्धान, ज्ञान और आचरण-तीनों धर्म ही हैं और ये तीनों ही मोक्ष के साधन भी हैं। हीगल ने धर्म की जो परिभाषा की है, उसमें एकमात्र ज्ञानात्मक पहल पर जोर दिया गया है। शेष दो अंशों की उसमें उपेक्षा की गई है। मैक्समूलर ने भी हीगल का ही अनुसरण किया है । कान्ट ने धर्म की जो परिभाषा दी है, उस में उसने ज्ञानात्मक के साथ में क्रियात्मक पहलू पर भी ध्यान दिया है, परन्तु भावनात्मक पहलू की उपेक्षा कर दी है। लेकिन मार्टिन्यू ने धर्म की जो परिभाषा को है, उसमें विश्वास, विचार और आचार-तीनों का समावेश कर लिया गया है । अतः धर्म की यह अपने आप में पूर्ण परिभाषा है । एक प्रकार से इसमें धर्म और दर्शन के साथ में भक्ति को भी समेट लिया गया है। इसका अर्थ यह है, कि धर्म के क्षेत्र में भक्ति, ज्ञान और कर्म-तीनों का समन्वय है। __आज के नवयुग के चिन्तन में से एक नया प्रश्न खड़ा हो रहा है, कि धर्म और विज्ञान का क्या सम्बन्ध है ? धर्म Religion और विज्ञान Science में क्या कुछ भेद है, और यदि है, तो वह क्या है ? इस विषय पर विस्तार के साथ में विचार करने का न समय है और न प्रसंग ही। फिर भी दोनों का स्वरूप ज्ञान तो आवश्यक ही है । विज्ञान का उद्देश्य कार्य-कारण सिद्धान्त के द्वारा वस्तुओं के बीच स्थिरता कायम करना है । परन्तु विज्ञान से जब पूछा जाता है कि कार्य-कारण की श्रृखला-एक व्यवस्था का निर्माण किस प्रकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003191
Book TitleDharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1967
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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