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________________ १४२ 138 इस एक का ४' 1 यही सर्वोत्कृष्ट धर्म है और ज्ञानों में श्रेष्ठ ज्ञान है परिज्ञान होने पर कुछ भी ज्ञातव्य नहीं रह जाता। इस आत्मविद्या के द्वारा राग-द्व ेष की प्रहारिण की जाती है । और यही सर्वोत्तम राजविद्या है | ४२ न्यायदर्शन मिथ्याज्ञान, मोह आदि को संसार का मूल मानता है और सांख्य दर्शन विपर्यय को ।४४ बौद्ध दर्शन विद्या, राग-द्वेष को संसार का प्रधान कारण स्वीकारता है । ४५ जैन दृष्टि से साधना के क्षेत्र में सम्यग्ज्ञान का वही महत्त्व हैं जैसा सम्यग्दर्शन का है। ज्ञान प्रकाशक है । ४६ प्रथम ज्ञान और फिर चारित्र प्रादुर्भूत होता है । ४७ सम्यक् चारित्र : आत्मस्वरूप में रमण करना और जिनेश्वरदेवों के वचनों पर ३६. (क) अयं तू परमो धर्मः यद्योगेनात्मदर्शनम् । ४०. (ख) आत्मज्ञानं परं ज्ञानम् । यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यत् ज्ञातव्यमवशिष्यते । ४१. आन्वीक्षिक्यात्मविद्या, स्यादीक्षणात् सुखदुःखयोः । ईक्षमाणस्तया तत्त्वं, हर्षशोकौ व्युदस्यति ॥ ४२. राजविद्याराजगुह्य ं पवित्रमिदमुत्तमम् । 9 ४३. न्यायसूत्र ४।१-३-६ ४४. सांख्य कारिका ६४।३ ४५. बुद्ध बचन ४६. णाणं पयासयं । ४७. पढमं णाणं तओ दया । Jain Education International धर्म और दर्शन - याज्ञवल्क्य १ ।११८ - महाभारत, शान्तिपर्व For Private & Personal Use Only - गीता ७।२ - शुक्रनीति १११५२ - गीता हार - महानिशीथ ७ - दशवेकालिक ४ www.jainelibrary.org
SR No.003191
Book TitleDharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1967
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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