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धर्म और दर्शन
थे। राजमहलों में उन्हें किसी प्रकार का कष्ट नहीं था, दुःख नहीं था। फिर किस लिए उन्होंने राजकीय वैभव को तृण की तरह त्यागकर तपश्चर्या का पथ अंगीकार किया ? खासतौर से भगवान् महावीर का जीवन तो निराला ही है । वे आए हुए संकटों को ही अविचल भाव से सहन नहीं करते थे, किन्तु संकटों को प्रामन्त्रित भी करते थे और उनको पराजित करने में आत्मिक वीर्य का सदुपयोग करते थे। _ 'धर्म कलह का कारण है'-इस कथन में भी कोई सचाई नहीं है । धर्म कलह को पाप और आत्मपतन मानता है। वह विश्वमैत्री पर बल देता है। अनेकान्त दर्शन ने समस्त दर्शनों के मतभेदों का निवारण करने का मार्ग सुझाया है। दक्षिण भारत में शैवों द्वारा जैनों के प्रति किए गए प्राणहारी अत्याचार, ईसाइयों में रोमन कैथोलिकों और प्रोटेस्टेंटों के बीच हए संघर्ष और भारत के हिन्दूमुस्लिम दंगे आदि में क्या वास्तव में धर्म का हाथ है ? संसार का कोई भी धर्म, अन्य धर्मावलम्बियों का गला काटने का उपदेश नहीं देता। यह करतूतें तो उन अधार्मिक लोगों की हैं जो अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए धर्म के पवित्र नाम का दुरुपयोग करते हैं । धर्म के वास्तविक स्वरूप को न समझना भी इसका कारण हो सकता है । धर्मसम्बन्धी अज्ञान धर्मोन्माद को जन्म देता है और लोग धर्म और धर्मोन्माद में भेद न करके धर्म पर लाञ्छन लगाते हैं । वस्तुतः धर्म का उससे कोई सरोकार नहीं होता। धर्म और पन्थ
ऐसे लोगों की संख्या भी कम नहीं है, जो विविध पन्थों को ही धर्म मानते हैं। किन्तु धर्म और पन्थ में बहुत अन्तर है । धर्म एक है, पन्थों को गणना करना भी सम्भव नहीं है। धर्म शाश्वत है, पन्थ सामयिक होते हैं। धर्म को यदि सरोवर मान लिया जाय तो पन्थ उसमें उठने वाली एक लहर है। युग की समाप्ति के साथ पन्थ समाप्त हो जाते हैं, जब कि धर्म त्रिकाल-अबाधित है । धर्म के अभाव में सृष्टि के अस्तित्व की कल्पना ही नहीं की जा सकती। .. भारतीय साहित्य में धर्म की विस्तृत और सूक्ष्मतम विवेचना की
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