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धर्म और दर्शन
हुई है । कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि धर्म जीवन को रूखा बनाता है । कइयों की धारणा है कि प्रात्महित को प्रधानता देकर धर्म मनुष्य को स्वार्थपरायण बना देता है। किसी किसी का आक्षेप है कि धर्म त्याग, संन्यास या निवृत्ति का विधान करके और उस पर अत्यधिक बल देकर मनुष्य को जीवनसंघर्ष से दूर भागने की प्रेरणा करता है, तो कई लोग धर्म को कलह का मूल कहते हैं।
ये सभी भ्रम धर्म के वास्तविक स्वरूप के नहीं, अपितु अज्ञान के फल हैं । धर्म की जो प्रमाणोपेत व्याख्या हमने प्रस्तुत की है, उसी से इन सब भ्रमों का निवारण हो जाता है। धर्म से जीवन नीरस नहीं, मर्यादित बनता है । सरसता का अर्थ यदि मर्यादाहीन उखल विहार समझा जाय तो बात दूसरी है, अन्यथा धर्म का ऐसा कोई भी विधान नहीं है जो जीवन में नीरसता उत्पन्न करता हो। व्यक्ति को स्वार्थ परायण बना देने का आक्षेप तो एकदम ही निराधार है, क्योंकि धर्म प्राणिमात्र को आत्मवत् समझने की प्रेरणा करता है और परोपकार को प्रात्मोपकार ही मानने की शिक्षा देता है । जैनशास्त्र का विधान है कि मुमुक्षु को स्व-पर के प्रति समभावी होना चाहिए और अपनी विशिष्ट अन्तःशुद्धि के लिए विशेष रूप से परोपकार करने का यत्न करना चाहिए।
जो त्यागवृत्ति अंगीकार करता है, प्रव्रज्या ग्रहण करता है, या संन्यास धारण करता है, क्या वह जीवनसंघर्ष से दूर भागता है ? नहीं, गृहस्थी की सुख-सुविधाओं का परित्याग करके जो व्यक्ति त्याग के पथ को अंगीकार करता है, वह बड़ी से बड़ी कठिनाइयों को, कष्टों को और प्रभावों को समभाव से सहन करता है। वह उन सबसे जूझने के लिए कृतसंकल्प होता है। महावीर और बुद्ध दोनो राजकुमार थे । संसार के उत्तम से उत्तम सुखसाधन उन्हें अनायास उपलब्ध
१७. निःश्रेयसपदमधिरोढकामेन तदवाप्तये स्वपरसममानसीमूय
स्वपरोपकाराय यतितव्यम् । तत्रापि महत्यामाशयविशुद्धौ परोपकृतिः कत्तुं शक्यते, इत्याशयविशुद्धिप्रकर्षसम्पादनाय विशेषतः परोपकारे यत्न प्रास्थ्यः ।
- नन्दीसूत्र टीका, मलयगिरि
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