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धर्म और दर्शन
संक्षेप दृष्टि से तत्त्व के दो भेद हैं। एक जीव और दूसरा प्रजीव । १४ जीव का लक्ष्य शिव है, किन्तु उसका बाधक तत्त्व जीव है । जीव शिव बनना चाहता है, पर अजीव तत्त्व जीव में पय-पानीवत् घुलमिल जाने के कारण जीव अपना शुद्ध स्वरूप पहचान नहीं पाता । वह अनादि अनन्त काल से अपने अशुद्ध रूप को ही शुद्ध रूप समझने की भयंकर भूल कर रहा है । अपने आपको शुद्ध चैतन्यस्वरूप न मान कर शरीर से, इन्द्रियों से, मन से, कर्मोदयजनित मनुष्यपर्याय आदि से प्रभिन्न समझना मिथ्या है ।
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इसे ही जैन दार्शनिकों ने मिथ्यात्व कहा है ।" रात्रिसंबंधी अन्धकार को दूर किये विना जैसे सहस्ररश्मि सूर्य उदित नहीं होता वैसे ही मिथ्यात्व रूपी अन्धकार को नष्ट किये विना सम्यग्दर्शन उत्पन्न नहीं होता ।१६ जब अत्मा में सम्यग्दर्शन का प्रादुर्भाव होता है तब वह आत्मा जीव और जीव का पृथक्त्त्व समझता है । मैं जड़ नहीं चेतन ! मेरा स्वरूप शुद्ध चेतना है । मुझ में राग, द्व ेष आदि की जो विकृति वह जड़ के संसर्ग से हैं। मैं सम्प्रति कर्मों से बद्ध हूँ, किन्तु कर्मों को
१४. (क) जीवरासी चैव प्रजीवरासी चेव ।
१५.
१६.
- स्थानाङ्ग २/४/६५ (ख) दुवे रासी पन्नत्ता, तं जहा जीवरासी चेव अजीवरासी चेव । - समवायांग २।१४६
(ग) जीवा चेवा
अजीवा यं, एस लोए वियाहिए ||
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- उत्तराध्ययन
(घ) पन्नवणा दुविहा पन्नत्ता - तं जहा
जीवनवणा य जीवपन्नवणा य ||
मिथ्या विपरीता दृष्टिर्यस्य स मिथ्यादृष्टि:
निद्धय तमो नैशं; यथा नोदयतेंऽशुमान् । तथानुद्भिद्य मिथ्यात्वतमो नोदेति दर्शनम् ।।
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-पनवणा-१
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- कर्मग्रन्थ टीका० २
- महापुराण, ११६/६/२००
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