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________________ धर्म का मूल : सम्यग्दर्शन नष्ट कर एक दिन मैं अवश्य ही मुक्त बनूगा।' इस प्रकार की निष्ठा उसके अन्तर्मानस में जागृत होती है। सम्यग्दर्शन प्राप्ति के दो कारण हैं- एक नैसर्गिक और दूसरा आधिगामिक ।१७ निसर्ग का अर्थ स्वभाव है । जब कर्मों की स्थिति कम होते-होते एक कोटाकोटी सागरोपम से भी कम रह जाती है और दर्शनमोह की तीव्रता में कमी आ जाती है, तब परोपदेश के विना ही जो तत्त्वरुचि उत्पन्न होती है-यथार्थ दर्शन होता है, वह नैसर्गिक सम्यग्दर्शन है । श्रवण, मनन, अध्ययनं या परोपदेश से सत्य के प्रति जो निष्ठा जागृत होती है, वह आधिगमिक सम्यग्दर्शन है। प्रस्तुत भेद बाह्य निमित्तविशेष के कारण ही है। दर्शनमोह का विलय जो अन्तरंग कारण है, वह दोनों प्रकार के सम्यग्दर्शन में अनिवार्य है। एक यात्री यात्रा के लिए चला । पथभ्रष्ट हो गया · इतस्ततः परिभ्रमण करता हुआ स्वतः पथ पर आगया, यह नैसर्गिक पथलाभ हुआ। दूसरा यात्री यात्रा के लिए चला। पथभ्रष्ट होकर इधर उधर भटकता रहा । पथदर्शक से पथ पूछ कर पथ पर आरूढ़ हा, यह आधिरमिक पथ-लाभ हुआ । ठीक इसी प्रकार नैसर्गिक और आधिगमिक सम्यग्दर्शन है। प्राचार्य जिनसेन के अभिमतानुसार देशनालब्धि और काललब्धि सम्यगदर्शन की उपलब्धि के बहिरंग कारण हैं, तथा करण लब्धि अन्तरंग कारण है । जब दोनों की प्राप्ति होती है तभी भव्य जीव सम्यग्दर्शन का धारक होता है ।१८ १७. तन्निसर्गादधिगमाद्वा । -तत्वार्थ सूत्र ११३ १८. देशनाकाललब्ध्यादि, बाह्यकारणसम्पदि । अन्तः करणसामग्र यां, भव्यात्मा स्याद् विशुद्धिकृत् ॥ - महापुराण, जिनसेन ११६।६।१६६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003191
Book TitleDharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1967
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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