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________________ १३४ धर्म और दर्शन __ जब दर्शन मोह के परमाणुओं का पूर्ण उपशमन होता है तब औपशमिक सम्यक्त्व होता है । केवल विपाकोदय रुक कर प्रदेशोदय होने पर क्षायोपशमिक सम्यक्त्व होता है और पूर्ण विलय (क्षय) होने पर क्षायिक सम्यक्त्त्व होता है। यद्यपि प्राप्ति-क्रम के सम्बन्ध में कोई निश्चित मत नहीं है, तथापि यह स्पष्ट है कि सैद्धान्तिक दृष्टि से सर्व प्रथम क्षायोपशमिक सम्यगदर्शन उत्पन्न होता है । महापुराण' और कर्मग्रन्थ के अनुसार औपशमिक सम्यग्दर्शन होता है। कितने ही प्राचार्य दोनों विकल्पों को मान्य करते हैं और कितने ही प्राचार्यों का यह भी अभिमत है कि क्षायिक सम्यक्दर्शन भी पहले पहल प्राप्त हो सकता है। सम्यग्दर्शन का सादि अनन्त विकल्प इसका आधार है। तत्त्वों के सही श्रद्धान से मिथ्यात्व का नाश होता है और सम्यक्त्व की उपलब्धि होती है। जो आत्मविकास का प्रथम सोपान है जिससे श्रावक-धर्म या श्रमण-धर्म को ग्रहण करने के लिए कदम आगे बढ़ते हैं।२१ सम्यग्दर्शन जीवन की अमूल्य निधि है । जिसे यह अमूल्य निधि प्राप्त हो जाती है वह भंगी भी देव है। तीर्थंकरों ने उसे देव कहा १६. क्षयाद् दर्शनमोहस्य, सम्यक्त्वादानमादितः । जन्तोरनादिमिथ्यात्वकलङ्ककलिलात्मनः ॥ ' -महापुराण, ११७।६।२०० २०. मोख महल की परथम सीढ़ी, या विन ज्ञान चरित्रा। __ सम्यक्ता न लहै सो दर्शन, जानो भव्य पवित्रा । -पं० दौलतराम, छहढाला (ख) दर्शनं ज्ञानचारित्रात्साधिमानमुपाश्नुते, दर्शनं कर्णधारं तन्मोक्षमार्गे प्रचक्षवे । -समन्तभद्र, रत्नकरण्डश्रावकाचार २१. नत्थि चरित्त सम्मत्तविहूर्ण, दंसरणे उ भइयव्वं । सम्मत्तचरित्ताइ, जुगवं पुव्वं व सम्मत्त ॥ --उत्तराध्ययन, अध्य० २८ गा० २६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003191
Book TitleDharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1967
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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