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धर्म का मूल : सम्यग्दर्शन
१३१ का श्रद्धान करना सम्यक्त्त्व है, किन्तु निश्चय नय से आत्मा का श्रद्धान ही सम्यक्त्व है।
उमास्वाति के शब्दों में 'तत्त्वरूप पदार्थों की श्रद्धा अर्थात् दृढ़ प्रतीति सम्यग्दर्शन है ।१०
आधारभूत तथ्य को तत्त्व कहते हैं । स्थानाङ्ग और उत्तराध्ययन२ आदि में तत्त्व के नौ भेद किये हैं--(१) जीव (२) अजीव (३) पुण्य, (४) पाप (५) आस्रव (६) संवर (७, निर्जरा (८) बंध () मोक्ष।
उमास्वाति व प्राचार्य हेमचन्द्र ने तत्त्व के सात भेद किये हैं(१) जीव (२) अजीव (३) आस्रव (४) बन्धः (५) संवर (६) निर्जरा (७) और मोक्ष । पुण्य और पाप को उन्होंने आस्रव के अन्तर्गत गिना है।
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६. जीवादीसद्दहणं सम्मत्तं, जिणवरेहिं पण्णत्तं । _ववहाराणिच्छयदो; अप्पाणं हवइ सम्मत्त ।।
-दर्शन पाहुड २० १०: तत्त्वार्थ श्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् ।
-तत्त्वार्थ सूत्र ११२ (ख) उत्तराध्ययन २८.१५ ११. स्थानाङ्ग ६६५
जीवा-जीवा य बंधो य, पुण्णं पावाऽसवो तहा । संवरो निज्जरा मोक्खो, संतेए तहिया नव ॥
-उत्तराध्ययन २८।१४ (ख) जीवाजोवा भावा, पुण्णं पावं च आसवं तेसि । संवरणिज्जरबंधो, मोक्खो य हवति त अट्ठा ॥
-पंचास्तिकाय २।१०८ १३. जीवाजीवास्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्त्वम् ।
-तत्त्वार्थसूत्र १४ (ख) जीवाजीवाश्रवाश्चैव, संवरो निर्जरा तथा । बंधो मोक्षश्चेति सप्त, तत्त्वान्याहुर्मनीषिणः॥
-सप्ततत्त्वप्रकरणम्-प्राचार्य हेमचन्द्र
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