SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 214
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धर्म का प्रवेशद्वार : दान १६६ देते हैं। दान ग्रहण करने के लिए जो भी सनाथ, अनाथ, पथिक, प्रेष्य, भिक्षु आदि प्राजाते हैं उन्हें वे बिना भेद भाव के दान देते हैं। संयम लेने के पश्चात् अन्य तीन धर्मों का आराधन हो सकता है पर दान नहीं दिया जा सकता है । अतः तीर्थङ्कर प्रथम दान देकर संसार को दान देने का उद्बोधन देते हैं। वैदिक ऋषि के शब्दों में उनका प्रस्तुत प्राचरण यही प्रेरणा देता है कि, "यदि तुम सौ हाथों से इकट्ठा करते हो तो हजार हाथों से बाँट दो।१° दान करने से गौरव प्राप्त होता है, धन का संचय करने से नहीं। जल का दान करने वाला मेघ सदा ऊपर रहता है और संग्रह करने वाला समुद्र नीचे रहता है। भर्तृहरि ने कहा है।-"दान, भोग और नाश ये तीन धन की गतियाँ है । जो न देता है और न भोगता ही है, उसका धन नष्ट हो जाता है ।'१२ और जब नष्ट हो जाता है तो धन का स्वामी मधु ८. तिण्रणेव य कोडिसया, अट्ठासीई अं होंति कोडीओ। असियं च सयसहस्सा, एयं संवच्छरे दिण्णं ।। -आवश्यक नियुक्ति, गा० २४२ (ख) त्रिपष्ठिशलाकापुरुष चरित्र १।३।२४ प० ६८ (ग) आवश्यक भाष्य गा० ८५ पृ० २६० ६. तते णं मल्ली अरहा कल्लाकल्लिं जाव मागहो पायरासोति बहूणं सणाहाण य अणाहाण य पंथियाण य पहियाण य करोडियाण य कप्पडियाण य एगमेगं हिरण्णकोडी अट्ठ य अणूणातिं सयसहस्साति इमेयारूवं अत्थसंपदारणं दलयति । --ज्ञातृधर्म प्र० ८ । सू० ७६ १०. शतहस्तं समाहर सहस्र हस्तं संकिर । ----अथर्ववेद ११. गौरवं प्राप्यते दानान्न तु वित्तस्य संचयात् । स्थिति रुच्च पायोदानां, पयोधीनामधः स्थितिः ।। १२. दानं भोगो नाशस्तिस्रो गतयो भवन्ति वित्तस्य । यो न ददाति न भुक्ते, तस्य तृतीया गतिर्भवति ।। . --मोतिशतक श्लो० ०३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003191
Book TitleDharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1967
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy