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________________ धर्म और दर्शन मक्खी की तरह हाथ मलकर शिर धुनता हुआ पश्चात्ताप करता है । ३ इसके विपरीत जो उदारमना होते हैं वे कर्ण की तरह देने में ही आनन्द की अनुभूति करते हैं। जिन प्रात्मानों को नीचे जाना होता वे धन को निम्न कार्यों में खर्च करते हैं और जिनको ऊपर जाना होता है वे धन को सन्मार्ग में व्यय करते हैं । २०० किसान पहले खेत को रेशम की तरह मुलायम करता है, उसके पश्चात् उसमें बीज बोता है । हृदय रूपी खेत को भी दान देकर मुलायम कीजिये, फिर अन्य व्रतादि रूपी बीज बोइये । श्रावक का जीवन उदार होता है, हृदय विराट् होता है । उसके घर का द्वार तुङ्गिया नगरी के श्रावकों की तरह सदा खुला रहता है । १४ जो भी अतिथि, अभ्यागत उसके द्वार पर आता है, उसका वह हृदय से स्वागत करता है और आवश्यक वस्तु प्रसन्नता से प्रदान करता है । देना ही उसके जीवन का प्रधान लक्ष्य है । देने से समाधि उत्पन्न होती है और समाधि के कारण उसे भी समाधि प्राप्त होती है । १५ आगम साहित्य का अध्ययन करने वाला विद्यार्थी सहज ही जान सकता है कि गणधर गौतम ने जब कभी भी किसी व्यक्ति को विपुल वैभव सम्पन्न देखा तब उन्होंने भगवान् श्री महावीर के समक्ष यह १३. देयं भोज ! धनं धनं सुकृतिभिर्नो संचितं सर्वदा ।' श्रीकरणस्य बलेश्च विक्रमपतेरद्यापि कीर्तिः स्थिता । आश्चर्यं मधुदानभोगरहितं नष्टं चिरात् सञ्चितम् ।' निर्वेदादिति पाणिपादयुगलं, घर्षन्त्यहो मक्षिकाः ॥ १४. ऊसिअफलिहे, अवंगुअदुवारे । १५. - ( कालीदास) चाणक्यनीति श्र०११ - भगवती शतक २, उद्दे० ५ समणोवास गं तहारूवं समरणं वा जाव पडिलाभेमाणे तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा समाहिं उप्पाएति समाहिकारएणं तमेव समाहिं पडिलभइ | - भगवती शतक ७, उ० १ सू० २६३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003191
Book TitleDharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1967
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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