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धर्म और दर्शन
अवसर प्रदान करता है । दान की इस व्याख्या को हृदयंगम कर लेने वाले दाता के मन में अहंकार उत्पन्न न होगा । और यह निरहंकार भाव ही दान का आभूषण है। इसी से दान के पूर्ण फल की प्राप्ति होती है ।
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दान धर्म है ।" दान शील, तप और भावना ये धर्म के चार श्राधार स्तम्भ हैं । दान उनमें प्रथम है और सबसे अधिक आसान है । ग्राज दिन तक जितने भी तीर्थङ्कर हुए हैं वे सभी संयम ग्रहण करने के पूर्व एक वर्ष तक सूर्योदय से लेकर प्रातः कालीन भोजन तक एक करोड़ आठ लाख स्वर्ण मुद्राएँ दान देते रहे हैं।" वे एक वर्ष में तीन अरब, अठासी करोड़, और अस्सी लाख स्वर्ण मुद्राओं का दान
दानं धर्मः ।
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७.
— कोटिल्य
सो धम्मो चउभेओ, उवहट्ठो सयलजिणवरिदेहि | दाणं सीलं च तवो, भावो विअ तस्सिमे भेया ॥ (ख) दुर्गतिप्रपतज्जन्तु - धारणाद् धर्मं उच्यते । दान-शील तपो-भाव—भेदात् स तु चतुर्विधः ॥ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र १।१।१५२
(ग) दानं सीलं च तवो, भाबो एवं चउब्विहो धम्मो । सम्वजिहिं भणिओ तहा दुहा सुअचरितेहिं ॥ - सप्ततिशतस्थान प्रक०, गा० ६६,
पुव्वसूराओ ॥
संवच्छरण होहिति, अभिक्खमणं तु जिणर्वारिदाणं । तो अत्थि संपदाण, पव्वत्ती एगा हिरण्णकोडी, अठेव अणूणया सूरोदय- मादीयं
सयसहस्सा |
दिज्जइ जा
पायरासोत्ति ॥
- आचारांग द्वि०
० ० २३ गा० ११२ ११३
(ख) एगा हिरण्णकोडी, अट्ठेब श्रगुणगा सय सहस्सा । दिज्जइ जा सूरोदयमाईयं
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पायरासाओ ।।
(ग) त्रिषष्ठिशलाका पुरुष चरित्र १।३।२३
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सोमतिलक सूरि
-- श्रावश्यक नियुक्ति गा० २३६ भद्रबाहु
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