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धर्म और दर्शन
ही केवल प्रतिपात नहीं है, किन्तु उनको किसी भी प्रकार का कष्ट देना भी प्रारणातिपात है ।
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उक्त व्याख्यानों में दया और करुणा का पयोधि उछालें मार रहा है । स्थूल से लेकर सूक्ष्म तक किसी भी प्राणी को मन, वचन और काया से कष्ट न पहुँचाना और उनके प्रति मैत्री भाव रखना हिंसा है। हिसा हमें " प्रात्मवत् सर्वभूतेषु' का पाठ पढ़ाती है ।
अहिंसा का महत्व प्रतिपादित करते हुए भगवान् श्री महावीर ने हिसा को 'भगवती' कहा है ।" और प्राचार्य समन्तभद्र ने अहिंसा को 'परम ब्रह्म' कहा है। महाभारतकार व्यास ने अहिंसा को परम धर्म, परम तप, परम सत्य, परम संयम, परम दान, परम यज्ञ, परम फल, परम मित्र और परम सुख कहा है।"
(क)
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पाणातिवाता [ तो ] अतिवातो हिंसरणं ततो एसा पंचमी अपादारणे भयहेतुलक्खणा वा भीतार्थानां भयहेतुरिति ।
- दशवं० श्रगस्त्य सिंह चूर्णि
(ख) पाणाइवाओ नाम इं दिया आउप्पाणादिनो छव्विहो पाणा य जेसिं अत्थिते पागिणो भण्ांति, तेसिं पाणाणमइवाओ तेहि पाहि सह विसंजोगकरणत्ति वृत्तं भवइ ।
- दशवेकालिक, जिनदास चूर्णि पृ० १४६ तेषामतिपातः प्राणातिपातः - जीवस्य
५.
(ग) प्राणा - इन्द्रियादयः
महादुःखोत्पादनं, न तु जीवातिपात एव ।
एसा सा भगवती अहिंसा
६. अहिंसा भूतानां जगति विदितं ब्रह्म परमम् ।
७. अहिंसा परमो धर्मस्तथाऽहिंसा परं तपः । अहिंसा परमं सत्यं यतो धर्मः प्रवर्तते ॥ अहिंसा परमो धर्मंस्तथाऽहिंसा परो दमः । अहिंसा परमं दानमहिंसा परमं तपः ॥
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- दशवैकालिक, हारिभद्रीयावृत्ति प० १४४
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--प्रश्नव्याकरण
- बृहत् स्वयंभू स्त्रोत्र
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