SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 186
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अहिंसा और सर्वोदय १० आगम साहित्य का पर्यवेक्षण करने पर ज्ञात होता है कि महाव्रतों की त्रिविध परम्परा रही है । आचारांग में अहिंसा, सत्य और बहिर्धादान इन तीन का उल्लेख है', स्थानाङ्ग' उत्तराध्ययन' प्रभृति में हिंसा, सत्य, प्रचीर्य और बहिर्द्धादान" इन चार याम [महाव्रतों] का उल्लेख है । उत्तराध्यन १२ दशवैकालिक ३ यदि आगमों में अनेक स्थानों पर अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन पाँच महाव्रतों का वर्णन है । .93 स्थानाङ्ग प्रादि के अनुसार भगवान् श्री ऋषभदेव ने तथा भगवान् श्री महावीर ने पांच महाव्रतात्मक धर्म का प्ररूपण ८. ε, १०. ११. अहिंसा परमो यज्ञस्तथाऽहिंसा परं फलम् | अहिंसा परमं मित्रमहिंसा परमं सुखम् ॥ - महाभारत, अनुशासन ववं ११५ - २३ | ११६।२८-२६ जामा तिणि उदाहिया । स्थानाङ्ग २६६ उज्जामो अ जो धम्मो, जो इमो पंच देसिओ वद्धमाणेणं, पासेण च १२. अहिंस सच्चं च अतेणगं च, - उत्तरा० २३।२३ 'बहिद्वादाणाओं' त्ति बहिद्धा - मैथुनं परिग्रहविशेषः आदानं च परिग्रहस्तयोद्वन्द्व कत्वमथ वा आदीयते इत्यादानं परिग्राह्य वस्तु, तच्च धर्मोपकरणमपि भवतीत्यत श्राह - बहिस्तात् धर्मोपकरणाद् बहिरिति । इह च मैथुनं परिग्रहेऽन्तर्भवति, न ह्यपरिगृहीता योषिद् भुज्यत इति । -स्थानाङ्ग वृत्ति २६६ पडिवज्जिया पंच महव्वयाई, Jain Education International - आचारांग ७|१|४०० सिक्खओ | महामुनी ॥ ततो य बंभं चऽपरिग्गहं च । १३. दशवेकालिक, अ० ४ १७१ चरिज्ज धम्मं जिणदेसियं विऊ । -- उत्तराध्ययन, २१ २२ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003191
Book TitleDharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1967
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy