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सेवा : एक विश्लेषण
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भगवती सूत्र में मानसिक, वाचिक और कायिक दृष्टि से सेवा के तीन भेद किये गए हैं ।
स्व-सेवा, पर-सेवा, और स्वपर सेवा के रूप में सेवा के तीन प्रकार और भी है।+ सेवा का अर्थ आज्ञा का पालन भी है। जब व्यक्ति आज्ञा की आराधना करता है तब वह अपनो सेवा करता है । आत्म गुरणों का विकास करना स्वयं की सेवा करना है। दूसरे के प्रात्म गुणों के विकास में सहायता करना तथा उन्हें समाधि प्रदान करना पर सेवा है। स्वयं के सद्गुरगों का विकास कर मानसिक समाधि प्राप्त करना और दूसरों को समाधि देना यह स्वपर-सेवा है।
वैयावृत्य जैन श्रमण की साधना का प्रमुखतम अंग रहा है। स्वाध्याय भी उसकी साधना का अङ्ग है, पर स्वाध्याय से भी वैयावृत्य को प्रमुखताप्रदान की गई है। शिष्य प्रभात के पुण्य पलों में सर्वप्रथम वस्त्र पात्रादि का प्रतिलेखन करता है और उसके पश्चात् गुरु के चरणारविन्दों में प्रणिपातकर नम्र निवेदन करता है -- गुरुदेव! अब मुझे क्या करना चाहिए ? ग्राप चाहें तो मुझे वयावृत्य में संलग्न कर दीजिये या स्वाध्याय में । गुरु, शिष्य को यदि वैयावृत्य में नियुक्त कर देते हैं तो वह ग्लानिभाव का परित्याग कर सेवा करता है। १४ ।
जैन संस्कृति का श्रमरण शरीर के प्रति ममत्वभाव से प्रेरित होकर आहार नहीं करता। शरीर का पालन-पोषण करना उसका
१३. तिविहाए पज्जुवासणाए पज्जुवासंति एवं वदासी ।
-भगवती, शतक, २ उदेश, ५ + (ख) स्थानाङ्ग, ठा० ३,सू ० १८८ । १४. पुब्विल्लंमि चउभागे, आइच्चमि समुट्ठिए।
भंडयं पडिलेहित्ता, वंदित्ता य तओ गुरु॥ पुच्छिज्जा पंजलिउडो, किं कायव्वं भए इहं । इच्छं निओइग्रं भंते, वेयावच्चे व सज्झाए । वेयावच्चे निउत्तेणं, कायव्वमगिलायओ।
-उत्तराध्ययन अ० २६ गा० ८।१०
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