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धर्म और दर्शन
करना सेवा है । इनकी सेवा करने वाला श्रमण निर्गन्थ महानिर्जरा और महापर्यवसान करता है।"
पूर्वोक्त दस में से प्रत्येक की तेरह प्रकार से वैयावृत्य की जा सकती है। अतएव वैयावत्य के १३० भेद होते हैं। भाष्यकार" व चूर्णिकार ने उसके तेरह प्रकार यों बतलाए हैं-(१) भक्त, (२) पान (३) शय्या, (४) संस्तारक-पासनादि प्रदान करना, (५) क्षेत्र का प्रतिलेखन करना, (६) पैरों का मार्जन करना, (७) ग्लान-रुग्णावस्था में औषध का लाभ देना, (८) मार्ग में थकावट आदि होने पर उसका निवारण करना, (६) राजादि के कोप भाजन बनने पर निस्तार करना, (१०) शरीर, उपधि आदि का संरक्षण करना, (११) अतिचार विशुद्धि के लिए प्रायश्चित्त लेना ११, ग्लान को समाधि उत्पन्न करना, (१३) तथा उच्चारप्रस्रवरण आदि के पात्रों की व्यवस्था करना । ये सभी सेवा के विभिन्न प्रकार हैं।
१०. पंचहि ठाणेहि समणे निग्गन्थे महानिज्जरए, महापज्जवसाणे भवइ,
तं जहा-अगिलाए आयरिय वेयावच्च करेमाणे, एवं उवज्झाय वेयावच्च, थेरवेयावच्च तवस्सिवेयावच्च, गिलाणवेयावच्च करेमाणे।
___ पंचहि ठाणेहिं समणे निग्गंथे महानिज्जरे महापज्जवसाणे भवइ तं जहा- अगिलाए सेहवेयावच्चंकरेमारणे, अगिलाए कुलवेयावच्च कारेमाणे, अगिलाए संघवेयावच्च करेमाणे, अगिलाए साहमिय वेयावच्च करेमाणे ।
- स्थानांग ५, सू० १३ ।उ० १ ११. भत्ते पाणे सयणासणे य पडिलेह पायमच्छिमद्धाणे, राया तेणे दण्ड-गहे य गेलण्ण मत्ते य ।
-व्यवहार भाष्य १२. तं एक्केक्कं तेरसविहं तं जहा (१) भत्ते, (२) पाणे, (३) आसण,
(४) पडिलेहा, (५) पाद, (६) अच्छि, (७) भेसज्ज, (८) अद्धाण, (९) दृट्ठ. (१०) तेणे, (११) दंडग, (१२) गेलन्न (१३) मन्नंति,
- आवश्यक चूणि, जिनदास, पृ० १३४
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